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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
वासना जागृत हो गई । वे यक्षायतन के प्रकोष्ठ में छिप गए। मालाकार पुष्पांजलि अर्पण के लिए नीचे झुका । उस समय छहों पुरुष बाहर निकले और मालाकर को कस कर बांध दिया । अब बंधुमती अरक्षित थी । मालाकार का शरीर बंधा हुआ था, किन्तु उसकी आंखें मुक्त थीं और उससे भी अधिक मुक्त था उसका मन । गोष्ठिकों द्वारा बंधुमती के साथ किया गया अतिक्रमण वह सहन नहीं कर सका । वह भावुकता के चरम बिन्दु पर पहुंचकर बोला- 'मुद्गरपाणि ! मैं तुम्हारी इस काष्ठ प्रतिमा से प्रवंचित हुआ हूं। मैंने व्यर्थ ही शत-शत कार्षापणों के पुष्प इसके सामने चढ़ाए हैं । यदि तुम यहां होते तो क्या तुम्हारे सामने यह दुर्घटना घटित होती ?' वह भावना के आवेश में इतना बहा कि स्मृति खो बैठा। अकस्मात् एक तेज आवाज हुई। मालाकार के बंधन टूट गए । उसका आकार विकराल हो गया । उसने मुद्गर उठाया और सातों को मौत के घाट उतार दिया । उसका आवेश अब भी शान्त नहीं हुआ ।
अर्जुन की पुष्पवाटिका राजगृह के राजपथ के सन्निकट थी। उधर लोगों का आवागमन चलता था । पर यक्षायतन में घटित घटना का किसी को पता नहीं चला । मालाकर ने दूसरे दिन फिर सात पथिकों (छह पुरुष और एक स्त्री) की हत्या कर डाली । इस घटना से नगर में आतंक फैल गया । नगर के आरक्षिकों ने अनेक प्रयत्न किए पर उस पर नियंत्रण नहीं पा सके ।
सात मनुष्यों की हत्या करना अर्जुन का दैनिक कार्यक्रम बन गया । महाराज श्रेणिक के आदेश से राजगृह में यह घोषणा हो गई - ' मुद्गरपाणियक्षायतन की दिशा में कोई व्यक्ति न जाए ।' इस घोषणा के साथ राजपथ अवरुद्ध हो गया । फिर भी कुछ भूले-भटके लोग उधर चले जाते और मालाकर के शिकार बन जाते । सात मनुष्यों की हत्या का यह सिलसिला लम्बे समय तक चलता रहा । छह गोष्ठिकों के पाप का प्रायश्चित न जाने कितने निरपराध लोगों को करना पड़ा ।
जिस राजगृह को भगवान् अभय का पाठ पढ़ा रहे थे, जहां भगवान् की अहिंसा सुरसरिता की भांति सतत प्रवाहित हो रही थी, जिसका कणकण श्रद्धा और संयम की सुधा से अभिषिक्त हो रहा था, वह नगर आज
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