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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक माया भी दूसरों को देखने का परिणाम है । माया अपने आप में तो होती नहीं । किसी को ठगना हो तो माया करनी पड़ती है । ठगने का प्रश्न न हो तो न छल होता है, न प्रवंचना होती है और न कपट होता है । जो दूसरे को देखता है, जहां दूसरे को ठगने का प्रश्न है वहां माया करनी पड़ती है, वहां बड़ा कपट करना पड़ता है।
लोभ दूसरे के दर्शन से होता है, दूसरे के दर्शन से जागता है । पदार्थ को देखता है तो लोभ जागता है | पर-दर्शन के द्वारा ही लोभ का विकास होता है। बीमारियों का हेतु-प्रतिशोध की भावना
अपने आपको देखने वाला कलह नहीं कर सकता, दूसरे को देखने वाला कलह करता है । कलह दो में होता है । एक में कलह होता ही नहीं । जो अपने आपको देखता है, वह कलह कैसे करेगा । जब सामने दूसरे को देखता है तब तत्काल कलह की आग सुलग जाती है | कभी-कभी कलह करने का मन हो जाता है । आक्रोश उभर आता है । प्रतिशोध की भावना जाग जाती है | प्रतिशोध और कलह-ये भयंकर बीमारियां हैं । आज का मनोविज्ञान इस विषय में अनेक स्पष्टताएं हमारे सामने प्रस्तुत कर रहा है । अनेक शारीरिक बीमारियों का हेतु है-प्रतिशोध की भावना ।
एक छात्र कॉलेज में पढ़ता था । वह पढ़ने बैठता तब दस मिनट ठीक पढ़ता और तत्काल अपना आपा भूल कर बड़बड़ाने लग जाता | घर वाले परेशान, प्राध्यापक परेशान | सब परेशान थे । इस झुंझलाहट का कारण ज्ञात नहीं हो रहा था । डॉक्टरों ने इलाज किया पर व्यर्थ । व्यर्थ क्यों नहीं होगा? बीमारी है मन की और इलाज किया जाता है शरीर का । परिणाम कैसे आएगा? बीमारी कहीं और, इलाज कहीं और । बीमार कोई है और इलाज किसी और का हो रहा है । बीमारी कैसे मिटे ? आज रोगी और डॉक्टर-दोनों को यह समझना आवश्यक है कि शारीरिक निदान के बाद मानसिक निदान भी होना चाहिए । आज कोई भी डॉक्टर या वैद्य तभी सफल हो सकता है जब वह रोगी का शारीरिक निदान के साथ-साथ मानसिक निदान भी करता
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