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सामायिक के बाधक तत्त्वों से कैसे बचें ?
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१६. रति- अरति पाप - असंयम में अरुचि और संयम में रुचि से होने वाला कर्मबंध |
१७. मायामृषा पाप-माया सहित झूठ बोलने से होने वाला कर्मबंध | १८. मिथ्यादर्शनशल्य पाप - विपरीत श्रद्धा रूपी शल्य से होने वाला कर्मबंध |
ये भेद वास्तव में पाप तत्त्व के नहीं किन्तु जिन कारणों से पाप-कर्म बन्धता है, उन कारणों के अनुसार बध्यमान अवस्था की अपेक्षा से पाप को अठारह भागों में विभक्त किया गया है। प्राणों का वियोग करना योग आश्रव कहलाता है और प्राण वियोग करने से जो कर्म बन्धता है, वह प्राणातिपात पाप कहलाता है | उस पुदगल - समूह का आत्मा के साथ सम्बनध होने का हेतु प्राण-वियोजन है । यदि आत्मा के द्वारा प्राण- वियोजन नहीं किया जाता, तो पुद्गल - समूह भी आत्मा के साथ सम्बन्ध नहीं कर सकता, अतः उस क्रिया से जो कर्म बन्धता है, वह उसी क्रिया के नाम से पुकारा जाता है ।
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जिस कर्म के उदय से जीव हिंसा करता है, असत्य बोलता है तथा उसी प्रकार अन्य पाप करता है, उस कर्म को प्राणातिपात पाप-स्थान, मृषावाद पाप-स्थान आदि कहा जाता है ।
प्रगति का पहला सूत्र : अपने आपको देखो
सावध प्रवृत्ति से विरति का पहला सूत्र है स्व - दर्शन | एक विद्यार्थी मेरे पास आया । उसने कहा-'मैं प्रगति करना चाहता हूं। मैं जैसा हूं, वैसा रहना नहीं चाहता, जहां हूं, वहां रहना नहीं चाहता आगे बढ़ना चाहता हूं ।'
मैंने कहा- 'तुम्हारा स्वप्न बहुत अच्छा है। मैं चाहता हूं-तुम अपने स्वप्न को साकार करो । प्रगति के सूत्रों का तुम बोध करो ।'
उसने जिज्ञासा प्रस्तुत करते हुए हुए पूछा- 'प्रगति के सूत्र कौन-कौन से हैं ?'
प्रगति का पहला सूत्र को देखो । स्वयं के द्वारा स्वयं को देखो ।'
'क्या देखना है अपने आपको ? स्वयं को सब जानते हैं,' उसने कहा ।
है- 'अपने आपको देखो । आत्मा के द्वारा आत्मा
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