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सामायिक के साधक तत्त्व
भी अभ्यास करते-करते आगे बढ जाता है और बुद्धिमान् आदमी भी अभ्यास के अभाव में पीछे रह जाता है। उद्योग, व्यवसाय, अध्यवसाय और अभ्यासइन सबका प्रयोग करें, समता के सहयोगी तत्त्वों, निरवद्य प्रवृत्तियों का चुनाव करें । सावद्य प्रवृत्ति है निषेधात्मक भाव और निरवद्य प्रवृत्ति है विधायक भाव । इस भाषा में भी कहा जा सकता है- हिंसा एक पक्ष है, उसका प्रतिपक्ष है मैत्रीभाव | जैसे-जैसे मैत्रीभाव का विकास होगा, हिंसा स्वतः कम होती चली जाएगी । हमारी जितनी प्रवृत्तियां हैं, उन सबका प्रतिपक्ष है । ईर्ष्या का विकल्प है प्रमोद-भाव । जैसे-जैसे प्रमोद भावना बढ़ेगी, ईर्ष्या वैसे ही धुल जाएगी, जैसे राख से मांजने पर कांस्य की थाली । स्वभाव-परिवर्तन का अमोघ उपाय है - प्रतिपक्ष भावना । यदि मन में दृढ़ निश्चय और संकल्प हो तो व्यक्ति साधना करते-करते इतना बदल जाता है कि विषमता के कीटाणु समाप्त हो जाते हैं, समता के नए अंकुर प्रस्फुटित हो जाते हैं । एक दिन ऐसा लगता है - समता का कल्पवृक्ष हरा-भरा, शीतल छांव और मनोकामना की पूर्ति करने वाला बन गया है, जिसकी छाया में आनन्दपूर्वक जीवन जीया जा सकता है |
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