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सामायिक के साधक तत्त्व
को समाहित नहीं किया जा सकेगा । सामायिक का जो फल मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पायेगा । मनोविज्ञान की भाषा
हम सामायिक की साधना को प्रज्वलित रूप दें । समता की साधना को एक व्यवस्था के साथ करें, संकल्प के साथ करें । हमें इस तथ्य का भी स्पष्ट बोध होना चाहिए-विषमता के कारण ये हैं । व्यक्ति सामायिक करता चला जाए और उसे यह ज्ञात न हो कि विषमता के कारण क्या हैं ? सावद्य प्रवृत्ति आखिर है क्या ? इस स्थिति में वह समता को कैसे साध पाएगा? सावद्य प्रवृत्ति का एक वर्गीकरण भगवान् महावीर ने दिया, उसे मनोविज्ञान की भाषा में कहा जाये तो वह निषेधात्मक भावों का एक श्रेष्ठ वर्गीकरण है । मनोविज्ञान ने दो प्रकार के भावों का प्रतिपादन किया- विधायक और निषेधात्मक । अच्छे भावों का वर्गीकरण जितना सामायिक के साथ जुड़ा है, उतना मनोविज्ञान में भी नहीं है । अठारह सावध प्रवृत्तियों का, मनोविज्ञान की भाषा में निषेधात्मक भावों का चित्र हमारे सामने स्पष्ट रहे, हम एकएक सावद्य प्रवृत्ति को जान लें, यह सबसे पहले अपेक्षित है | वृत्ति-परिष्कार का सूत्र
सावद्य प्रवृत्ति का ज्ञान होने के बाद, हम सामायिक प्रारंभ करें और उसमें यह चिंतन करें-प्राणातिपात-हिंसा एक निषेधात्मक भाव है, सावद्य प्रवृत्ति है | इस वृत्ति को कैसे मिटाया जा सकता है ? कोई भी आदमी दिन भर हिंसा नहीं करता । वह कभी करता है, किसी प्रसंग में करता है । व्यक्ति अपने घर में बैठा पुस्तक पढ़ रहा है, वह कौन सी हिंसा कर रहा है ? वह सारे दिन हिंसा नहीं करता, किन्तु हिंसा की जो वृत्ति है, प्राणातिपात पापस्थान है; उस वृत्ति को कैसे मिटाए, उस गांठ को कैसे खोला जाए, यह चिन्तन सामायिक में होना चाहिए | एक दिन नहीं, दस-बीस दिन, पचास दिन सामायिक में यह चिंतन चले- इस वृत्ति को कैसे कमजोर किया जाए, दुर्बल बनाया जाए । चिन्तन करते-करते, अनुप्रेक्षा करते-करते अपने आप रास्ता निकल आता है । हिंसा का संस्कार दुर्बल होने लग जाता है । इसी प्रकार
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