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अध्यात्म का प्र
३० अनित्य अनुप्रेक्षा
दूसरा साधक तत्त्व है-अनित्य अनुप्रेक्षा । सब पदार्थ अनित्य हैं, जिसका संयोग होता है, उसका वियोग निश्चित है । जैसे-जैसे इस अनुप्रेक्षा का अभ्यास प्रखर बनेगा, मूर्छा कम होती चली जायेगी । यदि यह अभ्यास नहीं बढ़ता है तो मूर्छा प्रबल बनी रहती है । एक वृद्ध आदमी से मैंने कहा-भाई ! अब थोड़ा मोह कम करो । उसने कहा-महाराज ! और सब कुछ छूट जाता है, किन्तु यह मोह नहीं छूटता, प्रगाढ़ बनता है । जैसे-जैसे अवस्था बीतती है, मोह प्रगाढ़ बनता चला जाता है | युवा में शायद उतना मोह नहीं होता । एक युवक का धन चला जाता है तो वह सोचता है, धन हाथ का मैल है, फिर कमा लूंगा । यदि बूढ़े आदमी का धन चला जाये तो उसे ऐसा लगता है, मानो प्राण ही निकल गया है । यदि अनित्य अनुप्रेक्षा का अभ्यास पुष्ट होगा तो मोह कम होना शुरू हो जाएगा | अभिनव सामायिक
सामायिक का अर्थ मुंह बांध कर बैठ जाना ही नहीं है । एक प्रयोग कराया जाता है अभिनव सामायिक का । उसमें ये दोनों बातें होती हैं- बाधक तत्वों का वर्जन और साधक तत्त्वों का प्रयोग | सामायिक का जो पुराना ढर्रा चल रहा है, उसमें बदलाव का एक प्रयोग है अभिनव सामायिक | लोग केवल एक बात को करते हैं, दूसरी को छोड़ देते हैं, इसलिए सामायिक का जो परिणाम आना चाहिए, वह नहीं आ पाता । व्यक्ति रोज सामायिक करता है, पांच वर्ष, दस वर्ष तक प्रतिदिन सामायिक करता चला जाता है और परिवर्तन भी कुछ नहीं आता, लड़ाई-झगड़ा, कलह, क्रोध-सब कुछ वैसे ही चलता रहता है । इस स्थिति में दूसरे व्यक्ति के मन में यह प्रश्न उठता है-मैं सामायिक नहीं करता और अमुक व्यक्ति सामायिक करता है । दोनों में अन्तर क्या रहा ? एक धार्मिक व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन होना चाहिये । वह नहीं होता है तो प्रश्न उभर आता है | कारण यही है-व्यक्ति सामायिक के साथ साधक तत्त्वों का प्रयोग नहीं करता | जब तक सामायिक के साथ अनुप्रेक्षा का प्रयोग नहीं जुड़ेगा, परिवर्तन की साधना नहीं जुड़ेगी, इन प्रश्नों
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