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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक बनाती है, वह नहीं मिली, समता या संतुलन की बात नहीं मिली, तो सुख का सपना अधूरा रह जाता है । यदि समता सध जाती है, सुविधा नहीं मिलती है तो भी मनुष्य का जीवन आनन्द से परिपूर्ण रह सकता है | समता है तो सुख है | समता नहीं है तो सुख नहीं है । यह प्रत्यक्ष सिद्ध तथ्य है । इसके लिए किसी तर्क की अपेक्षा नहीं है । समता : सुखानुभूति,
जिस व्यक्ति ने समता को साध लिया, वह अल्प साधनों का जीवन जीते हुए भी सुख और शांति का जीवन जीता है । जिसके पास सब कुछ है, किन्तु समता नहीं है, वह दिन-रात तनाव का जीवन जीता है | वह कहता है-मैं आत्महत्या की बात सोच रहा हूं, तलाक की बात सोच रहा हूं, भाई पर मुकदमा करने की बात सोच रहा हूं । ये जो सारी स्थितियां आती हैं, कलह, अभ्याख्यान, दोषारोपण, चुगली, झठ, चोरी-ये जितनी प्रवृत्तियां हैं, वे मनुष्य को संताप में ले जाती हैं, दुःखी बनाती हैं । इन वृत्तियों के आचरण का नाम ही विषमता है । ये वृत्तियां मन को विषम बना देती हैं, मन का रस सोख लेती हैं। जितनी सावद्य-पापकारी प्रवृत्तियां हैं, वे मानसिक विषमता को जन्म देती हैं । विषमता पैदा होती है तो सुखानुभूति कम हो जाती है । जितनी-जितनी समता कम, उतनी-उतनी सुखानुभूति कम, जितनी-जितनी समता अधिक, उतनी-उतनी सुखानुभूति अधिक, यह एक समीकरण है । समता की साधना का अर्थ
प्रश्न है-मन में सुख की बात कहां से आती है ? मन सुखी नहीं होता है तो शरीर का सुख भी कम हो जाता है । जब-जब ईर्ष्या की आग मानव के मन में जलती है, उसमें जल-भुनकर व्यक्ति अपना सुख-चैन खो देता है । प्रसिद्ध घटना है, एक व्यक्ति का मकान गांव में सबसे ऊंचा था । कुछ वर्ष बाद दूसरे का मकान ऊंचा बन गया । वह ऊंचा मकान उसकी ईर्ष्या का कारण बन गया । इस ईर्ष्या ने उसके सारे सुख छीन लिये । प्रतिशोध की भावना, क्रोध और अहंकार की भावना-ये मानसिक ग्रन्थियां विषमता पैदा करती हैं । भगवान् महावीर ने अठारह ग्रन्थियों का उल्लेख किया । उन्होंने
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