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सामायिक समाधि
हैं । विकल्प को मिटाए बिना अशान्ति को नहीं मिटाया जा सकता । वस्तु और प्रकंपन
साधना में एक बात मुख्य है, वह बात है मन को खाली करने की । सुख-दुःख है क्या ? हमें इस पर सोचना है । हम आज के वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में देखें या महावीर के दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में देखें, हमें यह ज्ञात होगा कि हमारा सारा जीवन प्रकम्पनों का जीवन है । बाह्य जगत् में प्रकम्पन हैं, वाइब्रेशन्स हैं और भीतरी जगत् में भी प्रकम्पन हैं | प्रकम्पन ही वास्तव में सुख-दुःख पैदा करते हैं | आपके मुंह में कोई चीज गयी । स्वाद आया । स्वाद क्या है-इसे भी समझ लेना है । कोई चीज जीभ पर रखी । सारी जीभ स्वाद नहीं लेती । जीभ के अगले हिस्से पर कुछेक बिन्दु हैं, जो स्वादानुभूति करते हैं। वस्तु का स्पर्श होते ही उनमें प्रकम्पन होता है और तब स्वाद की अनुभूति होने लग जाती है । यदि उनका प्रकम्पन बन्द हो जाए तो आप कुछ भी खा लें, स्वाद नहीं आयेगा | मुनि को आहार किस प्रकार करना चाहिए-इसकी मीमांसा में आगम कहते हैं कि जैसे सांप बिल में सीधा प्रवेश कर जाता है वैसे ही मुनि भी कवल को, मुंह में इधर-उधर घुमाए बिना, निगल जाए । इसको शास्त्रीय भाषा में 'बिलमिव पन्नगभूए' कहा जाता है । इस अर्थ को हृदयंगम करने में पहले कठिनाई होती थी; परन्तु जब प्रकम्पनों के संदर्भ में देखता हूं तो लगता है कि प्रकम्पन पैदा न करने पर स्वाद की अनुभूति नहीं होती । हमारी हर प्रवृत्ति प्रकम्पन की प्रवृत्ति है । सुख कब होता है ? केवल वस्तु से सुख या दुःख नहीं होता । वस्तु और प्रकम्पन- इन दोनों का योग होता है तब सुख या दुःख का अनुभव होता है । अगर इनका योग न हो तो न सुख की अनुभूति होती है और न दुःख की अनुभूति होती है । आदमी अनमना है, चिंतातुर है या कोई बाहरी रोग से ग्रस्त है या आपत्ति में हैं, उस समय भी वह खाता है, किंतु स्वाद का अनुभव नहीं करता । अनमना होने के कारण उसका ध्यान अन्यत्र केन्द्रित रहता है, इसलिए खा लेने पर भी उसे पता नहीं रहता कि उसने कुछ खाया है । अनमने व्यक्ति को न सुख का अनुभव होगा और न दुःख का | प्रकम्पन पैदा हुआ और हमारा ध्यान उस
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