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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
किन्तु जैसे ही हमने मन को विकल्प से खाली कर दिया, फिर चाहे लाभ हो या अलाभ, सुख हो या दुःख, कुछ भी अन्तर नहीं आएगा । क्योंकि जहां अन्तर आ रहा था, उसे तो हमने समाप्त कर ही डाला । जो अन्तर को पकड़ रहा था, उसे तो हमने नष्ट कर ही दिया | अब अन्तर करे कौन ? अन्तर करने वाला ही नहीं रहा । अन्तर करने वाला था विकल्प | विकल्प-चेतना को समाप्त कर दिया । तब बाहर से जो घटित हो रहा है, उसे पकड़ ही नहीं रहा है तो अन्तर आयेगा कैसे ? अन्तर तो तब आए जब उसे पकड़ने वाला मौजूद हो । पकड़ने वाला तो मर गया, समाप्त हो गया, घर छोड़कर चला गया, अब अन्तर क्या आयेगा? निर्विकार अवस्था में रहकर महावीर ने कष्ट सहा था, इसलिए अन्तर नहीं आया । अगर वे सविकल्प अवस्था में रहते तो अन्तर अवश्य आता, फिर चाहे महावीर हों या कोई दूसरा । सम वह रह सकता है, जिसका मन निर्विकल्प होता है । समता और निर्विकल्प अवस्था ___ समता और निर्विकल्प अवस्था-दोनों में तालमेल है । हम सामायिक का अनुष्ठान करते हैं और मन को निर्विकल्प नहीं करते है तो सामायिक का वह परिणाम, लाभ-अलाभ में सम, सुख-दुःख में सम, निन्दा-प्रशंसा में सम, जीवन-मरण में सम, मान-अपमान में सम रहना नहीं होगा । यह स्थिति प्राप्त नहीं होगी, क्योंकि हमने मन को तो खाली किया नहीं, मन के विकल्पों को छोड़ा नहीं । विकल्प जब तक रहेगा, वह उसे पकड़ेगा । सामायिक समाधि तब प्राप्त होती है जब मन को हम निर्विचार कर लेते हैं | आप यदि ध्यान दें तो देखेंगे कि अशान्ति और विकल्प साथ-साथ जन्म लेते हैं । अशान्ति कोई अलग वस्तु नहीं है | अशान्ति और विकल्प एक साथ पैदा होते हैं । थोड़ा विकल्प बढ़ता है तो अशान्ति भी थोड़ी मात्रा में बढ़ जाती है । इस अवस्था में कुछ भी स्पष्ट रूप से पता नहीं चलता । जब विकल्प तीव्र होता है तब अशान्ति की मात्रा भी तीव्र हो जाती है । जब विकल्प की मात्रा के साथ-साथ अशान्ति की मात्रा भी बढ़ती जाती है तब वह अखरने लगता है | व्यक्ति अशान्ति को मिटाना चाहता है, पर अशान्ति तब तक ही नहीं मिटती जब तक विकल्प नहीं मिटता । अशान्ति और विकल्प एक सिक्के के दो पहलू
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