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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक विकृति नहीं, तब सामायिक होता है । जब हम सम चलते हैं, तब होता है सामायिक, तब होती है समता की साधना । किसके होता है सामायिक ?
सामायिक किसके होता है-यह प्रश्न है । प्राचीन गाथा में इसका उत्तर
जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य ।
तस्स सामाइयं हवइ, इइ केवलिभासियं । -सामायिक उसके होता है, जो सब प्राणियों के प्रति सम होता है | जिसके मन में किसी भी प्राणी के प्रतिकोई विषमता नहीं होती वह समभाव की साधना में बढ़ता चला जाता है। जहां विषमभाव आ गया, वहां सामायिक नहीं हो सकता । उसका स्वरूप ही है समभाव । क्या संभव है समभाव ?
एक प्रश्न उभरता है कि क्या सम रहना सम्भव है ? क्या यह केवल मानसिक कल्पना ही तो नहीं है ? क्या यह सम्भाव्य भी है ? यदि हम बहुत ऊंचा आदर्श स्थापित कर लें और उसके गीत गाते चले जाएं, यशोगान करतेकरते न ऊबें तो क्या वह हमारी आकाशी उड़ान नहीं होगी ? क्या वह मानसिक कल्पना मात्र नहीं होगी? क्या वह केवल श्रेष्ठता का आवरण नहीं होगा ? वास्तविकता क्या है ? यथार्थ क्या है ? क्या ऐसी साधना सम्भव है ? क्या ऐसा हो सकता है कि मनुष्य लाभ-अलाभ आदि द्वन्द्वों में सम रहे ? व्यवहार की भूमिका में यह सर्वथा आकाशी उड़ान है । यदि हम व्यवहार की भूमिका में जी रहे हैं, चल रहे हैं तो निश्चित मान लेना चाहिए कि यह सारी गाथा केवल आकाशी उड़ान है | यह कभी सम्भव नहीं हो सकता कि आदमी लाभ में भी सम रहे और अलाभ में भी सम रहे । जैसे ही कुछ लाभ होगा, प्रसन्नता आएगी। जैसे ही अलाभ होगा, विषण्णता आएगी । यह निश्चित क्रम है। इसमें कोई सन्देह नहीं है, चाहे सम्बन्धित व्यक्ति प्रकट न करे । वर्तमान में तो ऐसे यन्त्र भी हैं, जो मापकर बता देंगे कि अमुक घटना से आपके मन में प्रसन्नता की मात्रा कितनी बढ़ी है और अमुक घटना
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