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________________ १८ अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक विकृति नहीं, तब सामायिक होता है । जब हम सम चलते हैं, तब होता है सामायिक, तब होती है समता की साधना । किसके होता है सामायिक ? सामायिक किसके होता है-यह प्रश्न है । प्राचीन गाथा में इसका उत्तर जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं हवइ, इइ केवलिभासियं । -सामायिक उसके होता है, जो सब प्राणियों के प्रति सम होता है | जिसके मन में किसी भी प्राणी के प्रतिकोई विषमता नहीं होती वह समभाव की साधना में बढ़ता चला जाता है। जहां विषमभाव आ गया, वहां सामायिक नहीं हो सकता । उसका स्वरूप ही है समभाव । क्या संभव है समभाव ? एक प्रश्न उभरता है कि क्या सम रहना सम्भव है ? क्या यह केवल मानसिक कल्पना ही तो नहीं है ? क्या यह सम्भाव्य भी है ? यदि हम बहुत ऊंचा आदर्श स्थापित कर लें और उसके गीत गाते चले जाएं, यशोगान करतेकरते न ऊबें तो क्या वह हमारी आकाशी उड़ान नहीं होगी ? क्या वह मानसिक कल्पना मात्र नहीं होगी? क्या वह केवल श्रेष्ठता का आवरण नहीं होगा ? वास्तविकता क्या है ? यथार्थ क्या है ? क्या ऐसी साधना सम्भव है ? क्या ऐसा हो सकता है कि मनुष्य लाभ-अलाभ आदि द्वन्द्वों में सम रहे ? व्यवहार की भूमिका में यह सर्वथा आकाशी उड़ान है । यदि हम व्यवहार की भूमिका में जी रहे हैं, चल रहे हैं तो निश्चित मान लेना चाहिए कि यह सारी गाथा केवल आकाशी उड़ान है | यह कभी सम्भव नहीं हो सकता कि आदमी लाभ में भी सम रहे और अलाभ में भी सम रहे । जैसे ही कुछ लाभ होगा, प्रसन्नता आएगी। जैसे ही अलाभ होगा, विषण्णता आएगी । यह निश्चित क्रम है। इसमें कोई सन्देह नहीं है, चाहे सम्बन्धित व्यक्ति प्रकट न करे । वर्तमान में तो ऐसे यन्त्र भी हैं, जो मापकर बता देंगे कि अमुक घटना से आपके मन में प्रसन्नता की मात्रा कितनी बढ़ी है और अमुक घटना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003047
Book TitleSamayik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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