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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
कि पांच मीटर की दूरी पर स्थित पदार्थ भी दिखाई नहीं देता, दिन रात जैसा दिखाई देने लग जाता है। ऐसी स्थिति में आंख और सूरज का प्रकाश - दोनों के होने पर भी पदार्थ का सम्यक् अवबोध नहीं होता । वातावरण में एक विकृति पैदा हो जाती है ।
जब आदमी को तेज गुस्सा आता है, तब कहा जाता है-अमुक व्यक्ति लाल-पीला हो गया । गुस्से में आकृति बदल जाती है । वह गहरी लाल हो जाती है और उसमें कुछ पीलापन भी आता है । जब व्यक्ति लाल पीलापीला हो जाता है, गुस्से से भर जाता है, तब उसे सचाई का बोध नहीं होता । उसके सामने विकार का ऐसा घेरा बन जाता है, जिसे छोड़ कर वह सचाई को पकड़ नहीं पाता । व्यक्ति में ज्ञान है, आंख साफ है, किन्तु बीच में मूर्च्छा का ऐसा पर्दा आता है, जो चेतना को विकृत बना देता है ।
हम कर्मशास्त्रीय दृष्टि से विचार करें। ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम का काम है- आंख के सामने कोई वस्तु आए, उसे जान लेना । उसे देखने जानने में जो बाधाएं आती हैं, विकार आते हैं, वे मूर्च्छा से पैदा होते हैं । जानने का संबंध ज्ञानावरण के क्षयोपशम से है, किन्तु सही जानने में, सत्य का ज्ञान करने में केवल ज्ञानावरण का क्षयोपशम का नहीं देता । उसमें दो कर्मों का क्षयोपशम होना चाहिए- ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम और मोह कर्म का क्षयोपशम । मूर्च्छा का अभाव और आवरण का अभाव दोनों होते हैं तो सम्यक्ज्ञान संभव बनता है । इसलिए यह कथन संगत प्रतीत होता है- दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता, चारित्र के बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता । यह निर्वाण का एक समग्र क्रम है ।
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नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा ण हुंति चरणगुणा । अचरितस्स नत्थि मोक्खो, अमोक्खस्स नत्थि निव्वाणं ॥
सम्यक् दर्शन का, सम्यक् दृष्टिकोण का निर्माण करना बहुत कठिन है । दृष्टिकोण का समय होना तभी संभव है, जब कषाय कम हो । नादंसणिस्स
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