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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
हो गया तो नास्तिक तो ऐसे ही मारे जाएंगे | गहराई से ऐसा चिन्तन करना भी श्रुत सामायिक है। __आप सारे काम करते हैं, चार बजे उठते हैं । आवश्यक कार्य से निवृत्त हो सामायिक करते हैं, व्याख्यान सुनते हैं, भोजन करते हैं, सोते भी हैं, बातें भी करते हैं | ताश-चौपड़ भी खेलते हैं | समय हो तो आलोचना भी कर लेते हैं । आलोचना करना भारतीय जीवन की चर्या का मुख्य अंग बन गया है । दूसरों की बात करना निकम्मापन है । जो काम में व्यस्त रहते हैं, वे ऐसा नहीं करते । बम्बई में दो फ्लेटों में रहने वाले एक-दूसरे को वर्षों तक नहीं जानते । अपने से अपना काम करते हैं | प्रश्न है-बिना बात किए दिन बीते तो कैसे बीते यहां ?
शाम को भोजन करते हैं, इधर-उधर घूमकर आ जाते हैं । रात को सो जाते हैं । इस दिनचर्या में तत्त्व-चर्चा के लिए समय नहीं है । लोगों से कहा जाता है, अध्ययन कीजिए | उत्तर मिलता है, समय नहीं है । काम करने वाला कभी नहीं कहता, समय नहीं है । प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू से पूज्य गुरुदेव ने पूछा-'आपको पढ़ने का समय मिलता है क्या ?'
'हां !' 'कब ?' 'जब सोता हूं।'
सम्राट् भरत चक्रवर्ती थे । इतना बड़ा राज्य था फिर भी निश्चितता थी । उनके यहां मंगलपाठक रहते थे । 'वर्धते भयं-यह मंगलपाठ एक मुहूर्त तक चलता रहता था । भरत ने स्वयं उनको नियुक्त किया था। 'वर्धते भयं'–यह मंगलपाठ मुझे सुनाएं, जिससे मैं प्रमाद में न फंसू ।।
क्या हम निर्भय हो गए, जो सोचने की आवश्यकता ही नहीं समझते ? थोड़ा-बहुत समय लिखने-पढ़ने और चिन्तन में लगाना चहिए । जो अपने बारे नहीं सोचते, वे भयंकर भूल करते हैं । उन लोगों ने दूसरों को ज्यादा कष्ट पहुंचाया, जो स्वयं नहीं सोचते ।।
अपने को जानो, अपने आपको पहचानो । जो अपने को जान लेता
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