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सामायिक धर्म
देहप्रसादो रसनाजयेन, मनःप्रसादः समताश्रयेण ।
दृष्टिप्रसादो ग्रहमोचनेन, पुण्यत्रयीयं मम देव ! भूयात् ॥ • आचार्य ने महावीर की स्तुति मे लिखा- 'प्रभो रसना-विजय के द्वारा मेरा शरीर प्रसन्न रहे | समता के द्वारा मेरा मन प्रसन्न रहे, आग्रह-मोचन के द्वारा मेरी दृष्टि प्रसन्न रहे । प्रभो ! यह पुण्यत्रयी सदा मेरे साथ रहे ।
जो समता का आस्वाद नहीं लेता, उसका मन प्रसन्न नहीं रहता । सामायिक मन को प्रसन्न करने का अपूर्व साधन है । सामायिक का अर्थ
राजसमन्द में मेरे पास पांच-सात वकील बैठे थे । उनमें एक वकील सामायिक नहीं करता था | उसका उसमें विश्वास भी नहीं था । परम्परा से वह जैन अवश्य था । मैंने उससे पूछा-'सामायिक क्यों नहीं करते ?' उसने कहा-मेरा विश्वास नहीं है ।' __मैंने बताया-'जो सामायिक नहीं करता, वह सच्चा साम्यवादी भी नहीं होता (वह भाई साम्यवादी था) । सामायिक का अर्थ मुंह पर पट्टी बांधना ही नहीं है । सामायिक का अर्थ है-समता की साधना । सामायिक भगवान् महावीर के समूचे धर्प का सार या निष्यंद है | समता को छोड़ने पर महावीर के धर्म में शून्य रहेगा । आदि से अन्त तक सारा धर्म सामायिक है ।'
सामायिक तीन प्रकार की होती है- श्रुत सामायिक, दर्शन सामायिक और चारित्र सामायिक ।
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