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चारित्र
सूक्ष्म - सम्पराय चारित्र
जिस अवस्था में क्रोध, मान और माया का उपशम व क्षय हो जाता है, केवल सूक्ष्म लोभ का अंश विद्यमान रहता है, उस समुज्ज्वल अवस्था में सूक्ष्म- सम्पराय नामक चारित्र प्राप्त होता है ।
यथाख्यात चारित्र
जिस अवस्था में मोह सर्वथा उपशांत या क्षीण होता है, उसे यथाख्यात चारित्र कहते हैं । इसे वीतराग चारित्र भी कहा जा सकता है । इसमें पापकर्म का लगना सर्वथा बन्द हो जाता है । इस चारित्र के अधिकारी दो प्रकार के मुनि होते हैं - उपशांत मोह वाले तथा क्षीण मोह वाले । उपशांत मोह वाले मुनि उसी भव में मोक्ष नहीं जा सकते । क्षीण मोह वाले मुनि उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ।
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यह चारित्र ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक होता है ।
सामायिक चारित्र का अंश रूप में पालन करने वाला, बारह व्रत का पालन करने वाला व अंश रूप में आरम्भ - समारम्भ से निवृत्त होनेवाला, देशव्रती - श्रावक कहलाता है और पांच चारित्रों का यथाविधि पालन करने वाला साधु कहलाता है ।
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