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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
'सर्वे प्राणाः न हंतव्याः अहिंसाऽसौ प्रकीर्तिताः ॥ किं हिंसा बघ एवास्ति, प्रमादो वा भवेदसौ ? इसका समाधान है
वधः कार्य प्रमादश्च, कारणं नाम विद्यते ।
अप्रमत्तो वधार्थं नो, संतापाय न चेष्टते ॥
वध कार्य है । प्रमाद उसका कारण है। जो अप्रमत्त होता है, वह किसी के वध या संताप के लिए चेष्टा नहीं करता ।
प्रश्न मानसिक हिंसा का
कभी-कभी यह स्वर भी सुना जाता है - जैन लोग जितना प्राणी को न मारने पर बल देते हैं, उतना मानसिक हिंसा या मानसिक अहिंसा पर बल नहीं देते । इसका कारण क्या है ? वस्तुतः यह अवधारणा सही नहीं है । महावीर की भाषा में हिंसा का अर्थ है असंयम । अहिंसा का अर्थ है संयम | हिंसा का अर्थ है प्रमाद । अहिंसा का अर्थ है अप्रमाद । जब संयम ही अहिंसा है, अप्रमाद ही अहिंसा है तब कौन-सी मानसिक हिंसा बचती है ? कौनसी वैचारिक हिंसा बचती है ? कौन-सा बुरा भाव बचता है ? संयम का अर्थ है निग्रह करना । अठारह पाप का प्रत्याख्यान करने का अर्थ है संयम । जो व्यक्ति संयम को स्वीकार करता है, वह इस संकल्प को स्वीकार करता है - भंते ! मैं सामायिक करता हूं और सर्व सावद्य योग का त्याग करता हूं । सर्व सावद्य योग के त्याग का मतलब है अठारह पाप का त्याग । राग-द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, पर-परिवाद आदि-आदि अठारह पाप में समाविष्ट हैं ।
स्थूल निर्देश क्यों ?
हिंसा है असंयम । इस परिभाषा से कौन-सी हिंसा मुक्त है ? इस एक सूत्र में अहिंसा का मूल हृदय आ जाता है। जड़ को पकड़ना बहुत बड़ी बात है । आज का व्यक्ति स्थूलदृष्टि वाला है । वह सूक्ष्म बात को कम पकड़ता है । इसीलिए अहिंसा के सन्दर्भ में यह निर्देश दिया गया है - किसी को मारो मत । जब तुम किसी को मारते हो तो वह छटपटाता है । क्या तुम्हें दया नहीं
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