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१४१.
शक्ति की श्रेयस् यात्रा और सामायिक सामायिक की निष्पत्ति __ जो व्यक्ति अपने जीवन में कुछ घटित करना चाहता है, अपने चैतन्य की यात्रा करना चाहता है, वह यह बहाना नहीं कर सकता कि मेरा चैतन्य कहीं वृक्ष पर टंगा हुआ है। सारा का सारा चैतन्य इस शरीर के भीतर अवस्थित है । जब वह शरीर के भीतर है, तब उसे प्राप्त करने के लिए हमें शरीर की यात्रा करनी होगी । इस यात्रा का प्रारंभ हमें चमड़ी से करना होगा । फिर एक-एक आवरण को पार कर हमें नाड़ी-संस्थान तक पहुंचना होगा । फिर हमें तैजस शरीर को पार करना होगा । तैजस शरीर हमारी समस्त प्रवृत्तियों का संचालक है । प्राणशक्ति तैजस शरीर के द्वारा प्राप्त होती है । उसे भी हमें पार करना होगा । जो प्राण हमें जीवनशाक्ति दे रहा है, उसके स्पंदनों को पार करने के पश्चात् हमें कर्म शरीर की यात्रा प्रारंभ करनी होगी, जहां से सारी शक्तियां उमड़-उमड़कर आती हैं । ये सब छोटे-मोटे झरने हैं। महाप्रपात तो कर्म-शरीर है । सूक्ष्म कर्म-शरीर के एक-एक अणु पर, अनादिकाल से चिपके हुए संस्कारों को देखना होगा और एक-एक को पार करने का प्रयत्ल करना होगा।
सूक्ष्म शरीर का बहुत बड़ा संसार है । वह इतना बड़ा संसार है कि आज के अरबों-खरबों दृश्य संसार इसमें सहजता से समाविष्ट हो सकते हैं। इतना बड़ा संसार दूसरा है नहीं । कुछ तारे ऐसे हैं, जिनमें नील पृथ्वियां समा जाती हैं, किन्तु सूक्ष्म कर्म-शरीर के सामने ये तारे भी छोटे हैं । उस अनन्त संसार को, अनन्त संस्कारों के संसार को हमें पार करना होगा । उसको पार करते ही चैतन्य का अनुभव प्रारम्भ हो जाता है । सामायिक-साधना की यह सहज निष्पत्ति है।
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