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शक्ति की श्रेयस् यात्रा और सामायिक
१३९ नहीं है | वही ज्ञान ध्यान है, जो एकाग्र है, एक आलंबन पर चलने वाला
दूरी कैसे मिटे ?
ध्याता और ध्येय में बहुत बड़ी दूरी है । उसे पाटना बहुत कठिन होता है । जब साधक इस दूरी को पाटने का प्रयत्न करता है तब बीच में अनेक अवरोध आ जाते हैं । ध्यान भंग हो जाता है । एकाग्रता मिट जाती है । मन बाहर की चीजों में उलझ जाता है | ध्येय धुबला हो जाता है, छूट जाता है । जब ध्येय की दिशा में गमन ही नहीं होता या भटकाव हो जाता है तब ध्येय उपलब्ध कैसे हो सकता है ? जब चरण ध्येय की दिशा में बढ़ते ही नहीं, तब वहां तक पहुंचने की बात ही प्राप्त नहीं होती । ध्येय की दूरी तभी मिट सकती है जब हमारे मन की गति निरंतर ध्येय की दिशा में होती है । जब मन व्यग्रता से शून्य हो जाता है तब ध्येय की निकटता होने लगती है । जब निकटता बढ़ते-बढ़ते हमारे चरण ध्येय तक पहुंच जाते हैं तब मन की जो स्थिति बनती है, वह है तन्मयता | तन्मय हो जाने का अर्थ है-एक हो जाना । ध्येय और ध्याता तब दो नहीं रहते, एक हो जाते हैं । जो पूर्व रूप था, वह मिट जाता है और जो ध्येय का रूप है, वह अवतरित हो जाता है । पूर्व व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है और ध्येय का व्यक्तित्व समाविष्ट हो जाता है । वहां 'मैं' समाप्त हो जाता है । जो बनना होता है, वह घटित हो जाता है । साधक उस स्थिति में चला जाता है, जहां ध्याता और ध्येय दो नहीं रहते । ध्याता स्वयं ध्येय रूप बन जाता है । फिर व्यक्ति अलग नहीं होता और सामायिक अलग नहीं होती । व्यक्ति स्वयं सामायिक बन जाता है । फिर वह ऐसा नहीं कह सकता कि 'मैं सामायिक कर रहा हूं !' कौन करने वाला और कौन सामायिक ? 'मैं सामायिक करता हूं'-इसका तात्पर्य है कि एक करने वाला है और एक की जाने वाली वस्तु है । जब यह भेद समाप्त हो जाता है तब 'मैं' और 'सामायिक' दो नहीं रहते । करने की बात छूट जाती है । सामायिक . जीवन में अवतरित हो जाती है
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