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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक रयस्स'-जो एक ही आयतन में रत होता है, जो एक ही आयतन में देखता है, वह उस आयतन तक पहुंच जाता है, कभी नहीं भटकता | हम सीधी दिशा में चलें, परिक्रमा न करें । परिक्रमा करने वाला उस निश्चित वर्तुल में ही घूमता रहता है, आगे नहीं बढ़ पाता | आगे वह बढ़ता है, जो एक ही दिशा में चलता रहता है । साधक परिक्रमा न करे, सीधा उस चित्र की दिशा में बढ़ता जाए । मन की सारी ऊर्जा को एक दिशा में प्रवाहित करना सफलता का चिह्न है | जब तीनों शक्तियों-कल्पनाशक्ति, संकल्पशक्ति और एकाग्रता की शक्ति का उपयोग सम्यक् होने लगता है, उस समय हम तन्मय होकर ध्यान की स्थिति में चले जाते हैं । ध्येय है सामायिक
हमारा ध्येय है सामायिक । हम हैं ध्याता | ध्याता और ध्येय के बीच बहुत दूरी होती है | आप पूछेगे-कितनी दूरी ? इसका कुछ निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता । किन्तु उसके लिए एक सिद्धान्त स्थापित किया जा सकता है कि जितनी व्यग्रता उतनी ही दूरी । जितनी एकाग्रता उतनी ही दूरी की कमी । मन की व्यग्रता दूरी को बढ़ाती है । मन की एकाग्रता दूरी को कम करती है। ___ मन की दो भूमिकाएं हैं । एक है व्यग्रता की भूमिका और दूसरी है एकाग्रता की भूमिका । व्यग्र मन अर्थात् एक अग्र-आलंबन पर न टिकने वाला मन, नाना अगों-आलंबनों पर भटकने वाला मन । उसका भटकाव कभी नहीं मिटता । एकाग्रता अर्थात् एक ही अग्र पर टिकने वाला मन । इसमें भटकाव मिट जाता है।
जितनी व्यग्रता होती है, उतनी ही दूरी बनी रहती है । व्यक्ति ध्येय के निकट नहीं पहुंच पाता । ध्येय तक पहुंचने के लिए व्यग्रता को कम करना होगा।
___ज्ञान की दो अवस्थाएं हैं-ज्ञान और ध्यान । दोनों ज्ञान हैं । जो चेतना चंचल है, उसका नाम है ज्ञान और जो चेतना स्थिर है, उसका नाम है ध्यान । ध्यान ज्ञान है, परन्तु हर ज्ञान ध्यान नहीं है । प्रत्येक ध्यान ज्ञान है । ऐसा कोई भी ध्यान नहीं है, जो ज्ञान न हो, अज्ञान हो । किन्तु प्रत्येक ज्ञान ध्यान
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