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मानसिक शक्ति और सामायिक
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अपने आदर्शगृह (कांचघर) में गए । आदर्शगृह वह होता है जिसमें सब कुछ प्रतिबिम्बित हो सकता है। वहां जाकर वे बैठ गए। चारों ओर उनके प्रतिबिम्ब दीखने लगे । एक प्रतिबिम्ब पर उनका ध्यान अटका । वे उसे अनिमेष दृष्टि से देखने लगे । अनिमेष प्रेक्षा प्रारंभ हो गयी । भरत अपने ही प्रतिबिम्ब में खो गए । स्थूल शरीर की प्रेक्षा करते-करते वे सूक्ष्म शरीर की प्रेक्षा करने लगे । सबसे ज्यादा सूक्ष्म शरीर है-कर्म-शरीर । वे कर्मों के विपाक की प्रेक्षा करने लगे। वहां घटित होने वाली सूक्ष्मतम अवस्थाओं को देखने लगे । असंख्य और अनन्त अवस्थाएं । सारे पर्याय सामने आने लगे । सारा नया ही नया । नया संसार दृष्टिगोचर होने लगा। अनिमेष दृष्टि । आंखें प्रतिबिम्ब पर टिकी हुई हैं और वे सूक्ष्मतम पर्यायों का अवलोकन कर रही हैं। शरीर की प्रेक्षा करते-करते शुभ परिणाम आए । शुभ अध्यवसाय और लेश्या बढ़ती गयी । एक बिन्दु ऐसा आया कि समग्र चेतना निरावृत हो गयी । आवरण हट गया । सारे बंधन टूट गए। पूर्ण चेतना प्रकट हो गई । वे केवलज्ञान और केवलदर्शन को उपलब्ध हो गए । भरत चक्रवर्ती समाप्त हो गए। नये धर्म चक्रवर्ती का जन्म हो गया । आदर्शगृह में बैठे-बैठे इस शरीर प्रेक्षा के द्वारा उन्होंने उच्चतम उपलब्धि प्राप्त कर ली ।
प्रेक्षा का पहला प्रयोग
परंपरा के अनुसार भरत के इस कथानक में कुछ भेद है । अंगुली के गिर जाने पर भरत चक्रवर्ती अनित्य भावना में आरूढ़ होते हैं और भावना के प्रकर्ष में केवलज्ञानी बन जाते हैं । यह परम्परागत कथानक है । किन्तु जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में 'अत्ताणं पेहेमाणे' का स्पष्ट पाठ है । वे शरीर को देखते-देखते, अपने शरीर की प्रेक्षा करते-करते इतने गहरे चले गए कि अनन्तअनन्त कर्म-वर्गणा के स्कंधों को चीरकर पूर्ण चेतना, केवल चेतना के साम्राज्य में प्रवेश पा लिया। वहां जाते ही जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ हो गया । शरीर - प्रेक्षा का इतिहास बहुत पुराना है । यह इतिहास उस आदि युग से जुड़ जाता है, जो धर्म का प्रारंभिक युग था । प्रेक्षा ध्यान की परंपरा नयी नहीं है । हां, वह विस्मृत कर दी गयी थी । उसका आज पुनः उद्धार हो रहा है |
दुनिया में नया कुछ भी नहीं होता । जो बहुत पुराना हो जाता है, उसी
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