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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
का नाम होता है नया | एक बात प्रारंभ होती है । फिर वह विस्मृत हो जाती है। अतीत का अन्तराल बढ़ जाता है । फिर जब वह सामने आता है तब लोग उसे नया कहते हैं।
प्रेक्षा का पहला प्रयोग भरत चक्रवर्ती ने किया था, यह इतिहास-प्रसिद्ध बात है । इतने युगों तक यह विस्मृत रही । आज फिर चालू हो रही है । यह ध्यान की सरल पद्धति है। जो साधना-पद्धति कठिन होती है, वह कभी मान्य नहीं होती । मनुष्य की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि वह कभी कठोर बात को सहसा स्वीकार नहीं करती । वह सरलतम मार्ग को स्वीकार करती है । प्रेक्षा की पद्धति सरलतम मार्ग है ।
तीसरा आयाम
प्रेक्षा-ध्यान से समभाव फलित होता है, द्वंद्वातीत चेतना का उदय होता है । ऐसी तटस्थता, ऐसी समता, ऐसी द्वन्द्वातीत चेतना, जहां चेतना के दोनों आयाम समाप्त हो आते हैं, तीसरा आयाम खुल जाता है-वह समभाव । लाभअलाभ, सुख-दुख आदि जितने द्वंद्व हैं, जो हमारे मन को विचलित करते हैं, जो हमारे मन को विकृत और रुग्ण बनाते हैं, वे सारे समाप्त हो जाते हैं |
सचाई यह है कि सारे दुःख द्वंद्व की चेतना से प्रसूत हैं । एक अपना प्रिय पुत्र है । व्यापार करता है किन्तु लाभ नहीं कमा पाता । पिता के मन में ऐसी प्रतिक्रिया होती है कि पुत्र की प्रियता उस प्रतिक्रिया के नीचे दब जाती है और पिता का मन आक्रोश से भर जाता है । ऐसी कटुता पैदा हो जाती है कि जीवन भर के लिए पिता-पुत्र का सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है । यह कटुता क्यों ? यह प्रियता का विलोप क्यों ? यह सारा होता है द्वन्द्वचेतना के द्वारा । इसके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है । यदि बेटा धन कमा कर देता है तो पिता उसे सिर पर रख लेते हैं । तीन बेटे हैं। एक खूब धन कमाता है, दो नहीं कमाते । पिता की सारी प्रियता उस कमाऊ बेटे की ओर प्रवाहित होने लग जाती है । दोनों बेटे अप्रिय बन जाते हैं । यहीं से अलगाव का सिलसिला चालू हो जाता है । यह सब द्वंद्वात्मक चेतना से होता
है ।
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