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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
करना । जो विचार निरंतर उभर रहे हैं उनका शमन करना, नींद लाना, बेहोशी लाना - ये सब स्मृति को खोने के लिए किए जाते हैं। क्या इनके दुष्परिणाम नहीं होते ? आज का चिकित्सक यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि आज जो औषधियां दी जाती हैं, वे प्रतिक्रिया पैदा करती हैं, शरीर में क्षति पैदा करती हैं अनेक मानसिक समस्याएं पैदा करती हैं । ये चिकित्सा पद्धतियां 1 पूर्ण निर्देष नहीं हैं । चिकित्सा हो पर प्रतिक्रिया पैदा न हो, ऐसा इन चिकित्सापद्धतियों में नहीं है ।
मानसिक तनाव और प्रेक्षा
इस मानसिक तनाव की स्थिति में हम प्रेक्षा ध्यान प्रणाली पर विचार करें। जो कार्य औषधियों और विद्युत से संपन्न होता है क्या वह कार्य-प्रेक्षाध्यान से संभव है ? इस प्रश्न का उत्तर 'हां' में दिया जा सकता है। प्रेक्षाध्यान के अन्तर्गत हम जो छोटे-छोटे प्रयोग करते हैं, वे इस संदर्भ में बहुत ही महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं । जो काम औषधियां नही कर पातीं वह काम ध्यान के ये छोटे-छोटे अभ्यास कर देते हैं । प्रश्न है मस्तिष्क को विश्राम देने का । प्रश्न है विचारों की उधेड़बुन को समाप्त करना । कायोत्सर्ग से जितना विश्राम मस्तिष्क को मिलता है, स्नायु संस्थान को मिलता है उतना विश्राम किसी दूसरी प्रणाली से नहीं मिलता । न औषधियां और न विद्युत ही उतना आराम दे पाते हैं । इनकी अपेक्षा ही नहीं होती । विचारों की उधेड़बुन भी ध्यान से समाप्त हो जाती है ।
प्रेक्षा- ध्यान में शरीर और श्वास की प्रेक्षा की जाती है। जब मन शरीर की प्रेक्षा में लग जाता है तब बाहरी विकल्प समाप्त हो जाते हैं । यदि हम दिन में आधा घंटा भी विकल्पशून्य रह सकते हैं, विचारों की उधेड़बुन से छुट्टी पा सकते हैं तो समूचे दिन की क्रिया संपन्न हो जाती है, फिर और कुछ करने की जरूरत ही नहीं होती । प्रेक्षा से बड़ी-बड़ी उपलब्धियां भी संभव हो सकती हैं ।
निदर्शन भरत का
भरत चक्रवर्ती ने प्रेक्षा के द्वारा बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त की । एक दिन वे स्नानगृह में गए। स्नान से निवृत्त होकर वस्त्र धारण कर बाहर आए ।
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