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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
का अनुभव होता है, न अशांति और उद्वेग का अनुभव होता है और न यह अनुभव होता है कि जीवन में कोई खालीपन है । ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जीवन सरिता की भांति प्रवहमान है, जिसके दोनों तटबन्ध व्यवस्थित हैं, जिनमें जीवन-धारा निर्बाध गति से प्रवाहित हो रही है । यह सब होता है समन्वित के द्वारा । एक से कुछ नहीं होता | हम एक की ही उपासना न करें । हम केवल शक्ति के, केवल चेतना के या केवल वीतरागता के उपासक न बनें । हम केवल ज्ञान के, केवल दर्शन के, केवल पवित्रता और केवल वीतरागता के उपासक न बनें। हम चारों के उपासक बनें | हम यह मानकर चलें कि वीतरागता होगी तो चेतना का जागरण होगा; चेतना का जागरण होगा तो शक्ति का संवर्धन होगा; शक्ति का जागरण होगा तो वीतराग का जागरण होगा | चारों साथ-साथ जागेंगे । ज्ञान, दर्शन, वीतरागता और शक्ति-ये चारों जागेंगे तब व्यक्तित्व का पूरा विकास होगा । जीवन खिल उठेगा | चारों साथ-साथ नहीं जागेंगे तब तक व्यक्तित्व का परा विकास नहीं होगा | एक दिशा में होने वाला विकास कभी इष्ट नहीं होता | जब फैलाव चारों दिशाओं में होता है तब वह इष्ट होता है। द्वंद्व चेतना और तनाव
शक्ति का बहुत बड़ा महत्व है । हम इसे अस्वीकार नहीं कर सकते । किन्तु यदि केवल शक्ति का ही विकास होता है, द्वन्द्वातीत चेतना का विकास नहीं होता है तो वह शक्ति लाभदायक नहीं होती । वह शक्ति द्वन्द्व को ही बढ़ायेगी, घटायेगी नहीं । द्वन्द्व-चेतना तनाव पैदा करती है । द्वन्द्व-चेतना आवेगों के लिए उर्वर भूमि है, जहां सारे आवेग अंकुरित होते हैं । जितनी उत्तेजनाएं हैं, वे सारी तनाव की स्थिति में पैदा होती हैं । जब व्यक्ति में तनाव नहीं होता तब आवेग नहीं आ सकता, उत्तेजना नहीं आ सकती, वासना का उभार नहीं हो सकता । ये सब तब आते हैं जब तनाव की स्थिति होती है । तनाव इसका जनक है । प्रत्येक संस्कार पहले तनाव पैदा करता है । तनाव पैदा किए बिना कोई भी संस्कार नहीं उभरता ।
द्वन्द्व-चेतना तनाव उत्पन्न करती है । जब तनाव होता है तब मानसिक रोग और मानसिक विकार उभरते हैं । उस समय व्यक्ति को यह नहीं लगता
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