________________
मानसिक शक्ति और सामायिक
तब वह जागी हुई शक्ति उसी को ग्रसित कर जाती है । साधक के लिए वह शाप बन जाती है | द्वंद्व-चेतना जब तक विद्यमान रहती है तब तक मनुष्य को जो चाहिए, वह उपलब्ध नहीं कर सकता । शक्ति तो बहुत जाग गयी किन्तु यदि साधक द्वंद्व की चेतना में ही है तो वह हर्ष और शोक के झूले से झूलता रहेगा । हर्ष होगा तो भी तीव्र होगा और शोक होगा तो भी तीव्र होगा । शक्ति जागरण के कारण भिन्नता आएगी किन्तु वह साधक हर्ष और शोक से परे की स्थिति में नहीं पाएगा । वह दोनों के बीच में रहेगा । कभी हर्ष और कभी शोक - इसी घेरे में बंधा रहेगा । वह कभी रुष्ट होगा और कभी तुष्ट । कभी राजी और कभी नाराज । यह स्थिति बराबर बनी रहेगी । उसे एक ओर यह निराशा सताएगी कि मैं इतना शक्तिशाली हो गया फिर भी मैं इतना अशान्त, उद्विग्न और प्रताड़ित हूं, इतनी समस्याओं से घिरा हुआ हूं। यह तथ्य उसे कचोटने लगेगा । कमजोर आदमी तो समझता है कि मैं दुर्बल हूं इसीलिए सतत सताया जा रहा हूं । इतना सोचकर वह संतोष कर लेगा । शक्ति - सम्पन्न व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता । एक ओर उसे शक्ति का दर्प सताता है दूसरी ओर यह विचार सताता है कि मैं जो चाहता हूं, वह नहीं हो रहा है ।
समन्वय का संसार
केवल शक्ति से ही सब कुछ नहीं होता । यह समन्वय का संसार है । किसी एक तत्त्व से कुछ नहीं होता । प्रकृति के सारे तत्त्वों में ऐसा सामंजस्य और संतुलन है कि अनेक मिलते हैं तभी एक घटना घटित होती है । एक से कोई घटना घटित नहीं होती । यह संसार सहयोग और समवाय का संसार है । सब समवेत हों तो एक कार्य बन जाता है । केवल शक्ति से I कुछ नहीं होता ।
१२१
आनन्दमय जीवन के लिए चार तथ्य अपेक्षित होते हैं । जब ये चारों तथ्य समन्वित होते हैं तब पूर्ण जीवन जीया जा सकता है। वह जीवन, जिसमें कोई कमी खलती नहीं, कोई अशांति और बेचैनी रहती नहीं । वे चार तथ्य हैं- ज्ञान, दर्शन, वीतरागता और शक्ति । जब इन चारों का अवतरण एक साथ होता है तब व्यक्ति में पूर्णता आती है। ऐसी स्थिति में न शक्ति-शून्यता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org