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व्यक्तित्व का नवनिर्माण और सामायिक
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की भाषा में इस प्रकार हैं-'इच्छाओं का दमन मत करो । इच्छाओं का दमन करोगे तो वे और गहरे में चली जाएंगी और फिर भयंकर रूप धारण कर सताएंगी। नियंत्रण नहीं, परिष्कार करें
आचार्य कहते हैं-'विचारों को रोको मत, दबाओ मत ।' प्रश्न हो सकता है- क्या बुरे विचारों को भी आने दें ? धार्मिक लोग भला बुरे विचारों को कैसे आने देंगे ? वे कहेंगे- 'बुरे विचारों पर नियंत्रण लगाना चाहिए | उन्हें रोकना चाहिए ।' आज के धार्मिक स्वयं के विचारों के प्रति इतने जागरूक नहीं होते, जितने जागरूक वे दूसरों के बुरे कर्मों के प्रति रहते हैं । वे दूसरों को बुरे कर्मों से बचाने के लिए अनेक प्रकार का नियन्त्रण रखते हैं, अनेक नियम-उपनियम बनाते हैं। ऐसा लगता है कि मानो धर्म नियंत्रण के आधार पर चल रहा है । नियंत्रण से परिष्कार नहीं आता । यह परिष्कार या निर्जरा की पद्धति नहीं है । यह तो एक ऐसी पद्धति है, जिससे रोग दब जाता है, मिटता नहीं।
प्राकृतिक चिकत्सा पद्धति दोषों को बाहर निकाल कर स्वास्थ्य प्रदान करती है | दोषों का दबाती नहीं ।
आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्धति पंचकर्म के द्वारा दोषों को समाप्त कर शरीर को स्वस्थ बनाती है ।
ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति दोषों को दबाती है । जब दोष दब जाते हैं तब व्यक्ति में स्वस्थ होने का भ्रम पैदा होता है । कालान्तर में वे दोष उभरते हैं और व्यक्ति को दबोच लेते हैं खतरनाक है दबाने की प्रक्रिया
नियंत्रण से बुराई को मिटाने की तुलना ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति से की जा सकती है । इसमें बुराई मिटती नहीं, उपशांत होती है । जो उपशांत होती है, वह उभरती है । जो मिट जाती है, उसके उभार का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । मोह कर्म का उपशमन करने वाला वीतराग की स्थिति तक चला जा सकता है । उसका वीतराग व्यक्तित्व प्रकट हो जाता है। किन्तु उस साधक
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