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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
है । ध्यान मन की शांति के लिए करता हूं किन्तु ध्यान करने के लिए बैठते ही मन अशांत हो जाता है । वह निराश व्यक्ति ध्यान को छोड़ देता है । जब तक द्रष्टाभाव का विकास नहीं होता तब तक स्थिति में परिवर्तन नहीं हो सकता । प्रेक्षाध्यान के अभ्यास से द्रष्टाभाव विकसित होता है । हमारी चेतना की ऐसी अवस्था निर्मित हो जाती है कि जो कुछ घटित होता है, वह देखा जाता है, प्रतिक्रिया नहीं होती । साधक मात्र द्रष्टा रहे, प्रतिक्रिया न करे । द्रष्टाभाव का विकास होते ही प्रतिक्रियाएं पीछे रह जाती हैं। विचारों को न रोकें
अतीत का रेचन करने के लिए दो आलबन अपेक्षित हैं- कायोत्सर्ग और प्रेक्षा । जब साधक को यह लगे कि अतीत सता रहा है, मन को झकझोर रहा है, वासनाएं उभर रही हैं, आकांक्षाएं बढ़ रही हैं, लोभ बढ़ रहा है, तृष्णा बढ़ रही है - तब साधक कायोत्सर्ग करे । जो भी विचार आए, उसे देखता रहे । विचारों को रोके नहीं । उन्हें आने का मुक्त अवकाश दे । द्रष्टाभाव से देखता जाए । जो आता है वह अपने-आप चला जाएगा। जब साधक द्रष्टाभाव में रहता है तब अतीत कुछ बिगाड़ नहीं सकता । कर्मों का, संस्कारों का उभार होता है, उनका उदय होता है और साधक द्रष्टाभाव से सब कुछ देखता जाता है । वे विपाक होते हैं और मिट जाते हैं । उनका आना-जाना चालू रहता है और साधक का देखना चालू रहता है । यही प्रेक्षाध्यान की पद्धति है ।
आचार्य हेमचंद्र ने योगशास्त्र लिखा । उसमें बारह प्रकरण हैं । प्रथम ग्यारह प्रकरणों में उन्होंने परंपरागत ध्यान की पद्धति का प्रतिपादन किया और बारहवें प्रकरण में अपने अनुभूत तथ्यों का उल्लेख किया । उन्होंने लिखा- 'मैं जो कुछ इस प्रकरण में लिख रहा हूं, वह किसी शास्त्र के आधार पर नहीं लिख रहा हूं, किसी परंपरा के आधार पर नहीं लिख रहा हूं, किन्तु मेरा अपना जो अनुभव है वह मैं यहां प्रकट कर रहा हूं।' अपने अनुभवों के प्रकटीकरण में उन्होंने बताया कि जो विचार आते हैं, उन्हें रोको मत । विचारों को रोकने से वे भीतर दब जाते हैं । ये विचार आज की मनोविज्ञान
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