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समभाव है चेतना का तीसरा आयाम
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तब तक निरन्तर जलने वाला बाती और तेल से शून्य दीप नहीं जलाया जा सकता। यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि जितने अर्हत्, तीर्थंकर या विशिष्ट ज्ञानी हुए हैं, विशिष्ट साधक हुए हैं, उन सबने श्वास का ईंधन काम में लिया है । वर्तमान के विशिष्ट साधक भी इसी ईंधन के सहारे प्रकाश तक पहुंचते हैं और अनागत काल में भी यही ईंधन प्रकाश तक ले जाने वाला होगा । यही एकमात्र उपाय है । श्वास का संयम और श्वास की गति का परिवर्तन-साधना की यह प्रमुख शर्त है । श्वास, प्राण और मन
श्वास को देखने की बात बहुत छोटी लग सकती है किन्तु यह बहुत ही मूल्यवान् बात है । जिसे अब तक नहीं देखा, उसे देखना प्रारंभ कर रहे हैं । जिससे हम आज तक परिचित नहीं थे, हम उससे परिचित हो रहे हैं। जिसकी हमने उपेक्षा की, उसकी अपेक्षा कर रहे हैं । हम छोटा श्वास लेते थे, आज उसे दीर्घ कर रहे हैं । प्राणवायु को हम भीतर बहुत कम ले जा रहे थे, अब उसको अधिक ले जाने का प्रयत्न कर रहे हैं । प्राणवायु के द्वारा जिन शक्तिकेन्द्रों को हम विकसित नहीं कर पा रहे थे, अब पूरे प्राणवायु का प्रयोग कर हम उन शक्ति केन्द्रों को विकसित कर पाएंगे। मन की शक्ति को विकसित करने के लिए प्राणवायु की शक्ति का विकास करना बहुत आवश्यक होता है । प्राण की शक्ति को विकसित करने के लिए श्वास की शक्ति बहुत जरूरी है। इसकी एक श्रृंखला है । सूक्ष्म शरीर से प्राण की शक्ति आती है । उस प्राण के द्वारा प्राणी बनता है और यह प्राण की धारा श्वास के सहारे चलती है । श्वास का सहारा लिये बिना, श्वास के रथ पर चढ़े बिना प्राण की धारा नहीं चल सकती । श्वास और प्राण, श्वास और मन-ये अभिन्न बन जाते हैं, अटूट कड़ी के रूप में काम करते हैं । एक कड़ी यदि अस्तव्यस्त होती है तो दूसरी कड़ी भी गड़बड़ा जाती है | मन को हम सीधा नहीं पकड़ सकते । बहुत शक्ति चाहिए मन को पकड़ने के लिए | प्राण की धारा को सीधा नहीं पकड़ा जा सकता । किन्तु श्वास के माध्यम से प्राण को पकड़ा जा सकता है और प्राण के माध्यम से मन को पकड़ा जा सकता है । मन
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