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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
प्राण | सारा जीवन प्राण के द्वारा संचालित है हम प्राणी हैं । प्राण है; इसलिए हम जीवित हैं । निष्प्राण का अर्थ है-मृत । जब तक प्राण का दीप जलता है तब तक सब कुछ है । हम ऐसा प्रयत्न करें, जिससे यह दीप सदा जलता रहे । ऐसे दीप इस दुनिया में जले हैं, जो शताब्दियों तक जलते रहे हैं । एक दीप वह होता है, जो घण्टा-भर जलकर बुझ जाता है । एक दीप वह होता है, जो दो-चार, दस-बीस दिन जल कर बुझ जाता है ! तेल समाप्त हो जाता है, बाती जल जाती है, दीप बुझ जाता है । मनुष्य ने क्या नहीं खोजा ! उसने ऐसे दीप जलाए जो सैकड़ों वर्षों तक जलते ही रहे ।
इटली देश का एक किसान खेत में काम कर रहा था । काम करतेकरते उसका फावड़ा एक स्थान पर अटक गया | आसपास से खोदना शुरू किया । वहां एक दरवाजा दिखाई दिया । दरवाजे को तोड़ा । जब उसके भीतर प्रवेश करने लगा तब उसे वहां प्रकाश दिखाई दिया । एक दीया जल रहा था । उसने सोचा-प्रेतात्मा है । भला, जमीन के भीतर दीया कैसे जले ? वह निकट गया । उसने देखा- न तेल है और न बाती । वह बिना तेल और बाती का दीया था, उसके बुझने का प्रश्न ही नहीं होता । वह जलता रहा है और जलता ही रहेगा । वह निरन्तर जलने वाला दीया था । ईंधन है श्वास
जब बाहर ऐसे दीप जलाए जा सकते हैं तब क्या भीतर ऐसे दीप नहीं जलाए जा सकते, जो सहस्राब्दियों तक निरन्तर जलते रहें? ऐसे दीप जलाए जा सकते हैं । उनके लिए अलग प्रकार की बाती चाहिए, अलग प्रकार का तेल चाहिए, जो कभी समाप्त न हो । ऐसे दीपों के लिए हवा की आवश्यकता नहीं होती । इनको जलने के विशेष ईंधन होते हैं | पहला ईंधन है-श्वास । श्वास के ईंधन से ही ऐसे दीप जलाए जा सकते हैं, जो निरन्तर जलते रहें। जिन लोगों ने श्वास की साधना नहीं की, श्वास को नहीं देखा, नहीं जाना, वे कभी भी प्रकाश केन्द्र तक नहीं पहुंच सकते क्योंकि जब तक श्वास को नहीं देखा जाता तब तक विकल्पों का शमन नहीं हो पाता और जब विकल्पों का शमन नहीं होता, स्मृति और कल्पना की उधेड़बुन समाप्त नहीं होती,
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