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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
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ध्यान ही छोड़ दिया । ऐसे लोग अचिन्तन में डुबकी नहीं लगा सकते ।
आचार्य भिक्षु महान् साधक थे । उनके सामने एक लक्ष्य था । उन्होंने सबसे पहले मरने की बात तैयारी की । श्री मज्जयाचार्य ने लिखा-'मरण धार सुध मग लह्यो ।' आचार्य भिक्षु ने मरने की तैयारी कर शुद्ध मार्ग प्राप्त किया । मरने की सोचे बिना किसी को शुद्ध मार्ग मिलता ही नहीं । सारे मार्ग भटकाने वाले मिलते हैं । पहुंचाने वाला मार्ग उसी व्यक्ति को मिलता जिसने मरने की पूरी तैयारी कर ली है । इतना साहस बटोर लिया है कि उसमें जीने की कोई आकांक्षा नहीं है और मरने का कोई भय नहीं है | वही व्यक्ति इस निर्विचारता की स्थिति में पहुंच सकता है और वही चेतना की अतल गहराई में डुबकी लगा सकता है । उसी व्यक्ति को अखंड चेतना के समुद्र में गोता लगाने का अधिकार है । इसलिए हम पूरी तैयारी करें और पूरी तैयारी के साथ 'न सोचने' की भूमिका में जाएं, अचिन्तन की भूमिका में जाएं शब्दों, रूपों और आक्रतियों की सीमा को तोड़कर उस स्थिति में चले जाएं शब्दों, रूपों और आकृतियों की सीमा को तोड़कर उस स्थिति में चले जाएं, जहां कोई भी शब्द प्रभावित नहीं करता |
अप्रभावित बनें
ध्यान में शब्द प्रभावित करता है । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ध्यान में खड़े थे। एक आदमी आया । उसने एक बात कह दी कि राजर्षि राज्य को छोड़कर मुनि बन गए । राज्य का भार लड़के को सौंप दिया । वह छोटा था । छोटे कंधों पर राज्य का बृहद् भार । शत्रुओं ने आक्रमण किया है । वे राज्य को नष्ट करने लगे हैं । इतने से शब्द थे । कोई घटना नहीं थीं । राजर्षि ने सुना । शब्दों ने इतना प्रभावित किया कि राजर्षि ध्यान में खड़े-खड़े लड़ने में लीन हो गए । युद्ध प्रारम्भ हो गया । वे शत्रुओं को परास्त करने लग गए । इतने में ही दूसरा आदमी आया और ध्यानस्थ राजर्षि को देखकर बोला-'कितने बड़े ध्यानी हैं ! कितने महान साधक हैं ! अचल ध्यान-मुद्रा में खड़े हैं ! धन्य है, धन्य है, धन्य है !' राजर्षि ने इतना-सा सुना । चेतना मुड़ी । युद्ध-भूमि
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