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निर्विचारता और सामायिक
से ध्यान - भूमि में आ गए। फिर ध्यान की धारा अखंड रूप से प्रवाहित होने
लगी ।
शब्दों की परिधि में चलने वाला ध्यान शब्द से प्रभवित होता है । ध्यान करने वाला कभी लड़ाई लड़ने लग जाता है और कभी आत्म साधना की बात सोचने लग जाता है । वह रूप से भी प्रभावित हो जाता है ।
अचिन्तन की स्थिति में जाने वाला, सामायिक में रहने वाला, अपनी आत्मा में स्थित रहने वाला न शब्द से प्रभावित होता है और न रूप से प्रभावित होता है । उसमें न शरीर का अध्यास होता है, न जीवन की आकांक्षा होती है और न मृत्यु का भय होता है । वह सबसे परे हो जाता है । वह सभी के गुरुत्वाकर्षण को तोड़कर आत्मा के उस अन्तरिक्ष में चला जाता है जहां भार की कोई अनुभूति नहीं होती ।
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