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निर्विचारता और सामायिक
८७ हैं । उसका अंकन भी हमने किया है, किन्तु फिर प्रश्न वही है कि हम अचिन्तन की स्थिति तक कैसे पहुंचे । आप जल्दी न करें। निर्विचार की बात न सोचें । पहले अभ्यास प्रारम्भ करें । ध्येय बनाएं और उस ध्येय के साथ चलते चलें । इस प्रकार आप मन को एक अभ्यास देंगे, बुद्धि को एक अभ्यास देंगे । उसी प्रक्रिया से आप गुजरते जाएंगे, चलते जाएंगे । चलते-चलते एक ऐसी स्थिति आती है जहां आपकी एकाग्रता सध जाती है, आपका अभ्यास परिपक्व हो जाता है आप अप्रियता और प्रियता की मंजिल को थोड़ी पार कर लेते हैं । आप केवल जानने-देखने की क्षमता प्राप्त कर लेते हैं । इस स्थिति में निर्विचारता की बात समझ में आ सकती है । जानें और देखें
जो देखता है वह सोचता नहीं और जो सोचता है वह देखता नहीं । देखना और सोचना- दोनों साथ-सथ नहीं चल सकते । जो जानता है, वह विचारता नहीं और जो विचारता है, वह जानता नहीं । सोचना, विचारना, चिन्तन करना-यह सारी यांत्रिक प्रक्रिया है, मस्तिष्क की क्रिया है । यह मस्तिष्क के माध्यम से होती है ।
देखना और जानना अखंड चेतना की क्रिया है, जो स्वभाव से स्फूते होती है । इसका उत्स, उद्गम-स्थल है अखंड चेतना, आत्मा । यह यांत्रिक क्रिया नहीं है । यह मस्तिष्क की क्रिया नहीं है | यह मनोदैहिक क्रिया भी नहीं है । इसलिए हम अखंड चेतना से सम्पर्क करें, डुबकी लें । इसमें खतरा हो सकता है । जिसमें खतरा मोल लेने की क्षमता आ जाती है, जो मरने का साहस जुटा लेता है, वही आगे बढ़ सकता है | जो भी आदमी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहता है, उसे मरने की तैयारी करनी होती है | मरने की तैयारी के बिना अचिन्तन की बात नहीं आ सकती । वही जा सकता है अचिन्तन में
कुछ लोग घबरा जाते हैं | ध्यान की गहराई में जाते हैं, विचित्र प्रकार के अनुभवों से गुजरते हैं किन्तु घबराकर ध्यान छोड़ देते हैं । पूछने पर कहते हैं-ध्यान की गहराई में गए । ऐसा लगा कि हार्ट बन्द हो गया है | घबराकर
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