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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
बुद्धिजीवी लोग हैं, उनकी शक्ति ज्यादा क्षीण होती है । वे पेट की बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं । आंतें खराब हो जाती हैं । इसका कारण है अधिक चिन्तन, अधिक सोचना | चिन्तन शरीर का धर्म हो सकता है । जो शरीर का धर्म होगा, उसकी एक सीमा होगी । सीमा से ज्यादा प्रयत्न भी हानिकारक होता है। अचिन्तन है आत्मा का धर्म
अचिन्तन शरीर का धर्म नहीं है । अचिन्तन शब्द और रूप का कार्य नहीं है । वह आत्मा का धर्म है, स्वभाव है | अचिन्तन हमारा स्वभाव है । जो स्वभाव होता है, उससे शक्ति क्षीण नहीं होती । हम अचिन्तन के क्षणों में कितने ही रहें, शक्ति क्षीण नहीं होगी । उससे शक्ति बढ़ेगी । चिन्तन से ऊर्जा समाप्त होती है। क्योंकि चिन्तन के लिए ऊर्जा चाहिए, ईंधन चाहिए | जिसे ईंधन की जरूरत होती है, वहां ईंधन समाप्त भी होता है । अचिन्तन के लिए प्राणिज ऊर्जा की कोई जरूरत नहीं होती । अचिन्तन के लिए ईंधन की भी कोई जरूरत नहीं होती क्योंकि वह आत्मा का स्वभाव है, अखंड चेतना का सहज धर्म है । यह जानने और देखने की स्थिति है । इसमें कोई शक्ति खर्च नहीं होती । उस समय हम अपने मूल स्वभाव में होते हैं ।
चिन्तन का कार्य
चिन्तन का काम है-शक्ति का व्यय करना । अचिन्तन की स्थिति में हमारी शक्ति बढ़ती है, घटती नहीं । अचिन्तन से शक्ति का विस्फोट होता है । हमारी जानने की शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि हम चिन्तन के द्वारा कभी नहीं जान सकते, नहीं जान पाते । हमारी क्षमता बढ़ जाती है । चिन्तन के द्वारा वही जाना जा सकता है, जो हमारी सीमा में होता है । अचिन्तन के द्वारा वे पदार्थ भी हमारे लिए दृश्य हो जाते हैं जो सीमा में नहीं हैं । उससे दूर की वस्तु को जाना जा सकता है, व्यवहित वस्तु को जाना जा सकता है और सूक्ष्म वस्तु को जाना जा सकता है । यह सब अचिन्तन के द्वारा हो सकता है | अचिन्तन बहुत ही मूल्यवान् है | हम उसके महत्त्व को समझते
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