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________________ ८०/ श्रमण महावीर व्यर्थता का अनुभव हो रहा है। उन्माद की समाप्ति पर हर आदमी ऐसा ही अनुभव करता है। पर जो होना होता है, वह तो उन्माद की छाया में हो जाता है, फिर मूर्छा-भंग घटित घटना का पाप-प्रक्षालन कैसे कर सकता है? काकमुख का दायां हाथ पाप के रक्त से रंजित हो गया। उसका बायां हाथ अभी बच रहा था। वह उसके रक्त-रंजित होने की आशंका से भयभीत हो उठा। उसने वसुमती के सामने अपनी अधमता को उघाड़कर रख दिया। उसकी अश्रुपूरित आंखों में क्षमा की मांग सजीव हो उठी। हताश काकमुख व्यथित वसुमती को साथ लिए कौशाम्बी पहुंच गया। वह युग मनुष्य के विक्रय का युग था। आज हमें पशु-विक्रय स्वाभाविक लगता है। उस युग में मनुष्य-विक्रय इतना ही स्वाभाविक था। बिका हुआ मनुष्य दास बन जाता और वह खरीददार की चल-संपत्ति हो जाता। उस युग में मनुष्य का मूल्य आज जितना नहीं था। आज का मनुष्य पशु की श्रेणी से ऊंचा उठ गया है। इस आरोहण में दीर्घ तपस्वी महावीर की तपस्या का योग कम नहीं है। ___ काकमुख वसुमती को लेकर मनुष्य विक्रय के बाजार में उपस्थित हो गया। बाजार में बड़ी चहल-पहल है। सैंकड़ों आदमी बिकने के लिए खड़े हैं । विक्रेताओं और क्रेताओं के बीच बोलियां लग रही हैं। वसुमती राजकन्या थी। उसका रूप-लावण्य मुस्करा रहा था। यौवन उभार की दहलीज पर पैर रखे खड़ा था। इतनी रूपसी और शालीन कन्या की बिक्री ! सारा बाजार स्तब्ध रह गया। हर ग्राहक ने वसुमती को खरीदना चाहा । पर उसका मोल इतना अधिक था कि उसे कोई खरीद नहीं सका। उस समय श्रेष्ठी धनावह उधर से जा रहा था। उसने वसुमती को देखा। वह अवाक रह गया। उसे कन्या की कुलगरिमा और वर्तमान की दयनीय परिस्थिति - दोनों की कल्पना हो गई। उसका हृदय करुणा से भर गया। वह भारी कीमत चुकाकर कन्या को अपने घर ले आया। श्रेष्ठी ने मृदु स्वर में कहा, 'पुत्री! मैं तुम्हारा परिचय जानना चाहता हूं।' वसुमती की मुद्रा गंभीर हो गई। वह कुछ नहीं बोली। श्रेष्ठी ने फिर अपनी बात दोहराई । वसुमती फिर मौन रही। उसने तीसरी बार फिर पूछा, तब वसुमती ने इतना ही कहा, 'मैं आपकी दासी हूं। इससे अधिक मेरा परिचय कुछ नहीं है .' उसकी आंखों से अश्रुधारा बह चली। श्रेष्ठी का दिल पसीज गया। उसने बात का सिलसिला तोड़ दिया। श्रेष्ठी धनावह की पत्नी का नाम था मूला। वह वसुमती को देख आश्चर्य में पड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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