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४८/ श्रमण महावीर
सिद्धांत को स्वीकार कर उसके प्रयोग में लगे हुए थे। वे यह सिद्ध करना चाहते थे कि शरीर की तुलना में सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म शरीर की तुलना में मन और मन की तुलना में आत्मा की शक्ति असीम है। उनकी लम्बी तपस्या उस प्रयोग की एक धारा थी। यह माना जाता है कि मनुष्य पर्याप्त भोजन किए बिना, जल पिए बिना बहुत नहीं जी सकता और श्वास लिये बिना तो जी ही नहीं सकता। किन्तु भगवान् ने छह मास तक भोजन और जल को छोड़कर यह प्रमाणित कर दिया कि आत्मा का सान्निध्य प्राप्त होने पर स्थूल शरीर की अपेक्षाएं बहुत कम हो जाती हैं । जीवन में नींद, भूख, प्यास और श्वास का स्थान गौण हो जाता है।'
'तो मैं यह समझू कि भगवान् को भूख लगनी बन्द हो गई?'
'यह सर्वथा गलत है। वे रुग्ण नहीं थे, तब यह कैसे समझा जाए कि उन्हें भूख लगनी बन्द हो गई।
'तो फिर यह समझू कि भगवान् भूख का दमन करते रहे, उसे सहते रहे?' 'यह भी सही समझ नहीं है।' 'सही समझ फिर क्या है?'
'भगवान् आत्मा के ध्यान में इतने तन्मय हो जाते थे कि उनकी भूख प्यास की अनुभूति क्षीण हो जाती थी।'
'क्या ऐसा हो सकता है?'
'नहीं क्यों? महर्षि पतंजलि का अनुभव है कि कंठकूप में संयम करने से भूख और प्यास निवृत्त हो जाती है।'
'कंठकूप का अर्थ?' 'जिह्वा के नीचे तन्तु हैं । तन्तु के नीचे कंठ है। कंठ के नीचे कूप है।' 'संयम का अर्थ?'
'धारणा, ध्यान और समाधि - इन तीनों का नाम संयम है। जो व्यक्ति कंठ-कूप पर इन तीनों का प्रयोग करता है, उसे भूख और प्यास बाधित नहीं करती।
भगवान् ने शरीर को सताने के लिए भूख-प्यास का दमन नहीं किया। उनके ध्यानबल से उसकी मात्रा कम हो गई।
स्वाद-विजय
भगवान् भोजन के विषय में बहुत ध्यान देते थे। वे शरीर-संधारण के लिए जितना अनिवार्य होता, उतना ही खाते थे। कुछ लोग रुग्ण होने पर कम खाते हैं । भगवान् स्वस्थ थे, फिर भी कम खाते थे। उनकी ऊनोदरिका के तीन आलंबन थे - सीमित बार खाना, परिमित मात्रा में खाना और परिमित वस्तुएं खाना।
'क्या भगवान् ने अस्वाद के प्रयोग किए थे?'
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