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भय की तमिस्रा : अभय का आलोक / ३३
योगी ध्यानमुद्रा में खड़े हैं और उनके सामने विषधर प्रशान्त मुद्रा में बैठा है। जिसका नाम सुनकर लोग भय से कांपते थे उसी विषधर के पास लोग जा रहे हैं। यह कुछ विचित्रसा लग रहा है। उन्हें अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हो रहा है। भगवान् महावीर पन्द्रह दिन तक वहां रहे। उनका यह प्रवास अभय और मैत्री की कसौटी, ध्यानकोष्ठ में बाह्यप्रभाव-मुक्ति का प्रयोग, अहिंसा की प्रतिष्ठा में क्रूरता का मृदुता में परिवर्तन और जनता के भय का निवारण- इन चार निष्पत्तियों के साथ सम्पन्न हुआ।
३. अभी साधना का दूसरा वर्ष चल रहा है । भगवान् सुरभिपुर से थूणाक सन्निवेश की ओर जा रहे हैं। बीच में हिलोरें लेती हुई गंगा बह रही है। भगवान् उसके तट पर उपस्थित हैं । सिद्धदत्त की नौका यात्रियों को उस पार ले जाने को तैयार खड़ी है। सिद्धदत्त भगवान् से उसमें चढ़ने के लिए आग्रह कर रहा है। भगवान् उसमें आरूढ़ हो गए हैं।
नौका गन्तव्य की दिशा में चल पड़ी। यात्री बातचीत में संलग्न हैं। महावीर अपने ही ध्यान में लीन हैं। नौका नदी के मध्य में पहुंच गई। प्रकृति ने एक नया दृश्य उपस्थित किया। आकाश बादलों से घिर गया। बिजली कौंधने लगी। गर्जारव से सब कुछ ध्वनिमय हो गया। तूफान ने तरंगों को गगनचुम्बी बना दिया। नौका डगमगाने लगी। यात्रियों के हृदय कांप उठे। इस स्थिति में भी महावीर उस नौका के एक कोने में शान्तभाव से बैठे हैं। उनका ध्यान अविचल है मानो उन्हें प्रकृति के इस रौद्र रूप का पता ही नहीं।
भय भय को उत्पन्न करता है, अभय अभय को। सदृश की उत्पत्ति का जैविक सिद्धान्त मनुष्य की मानसिक वृत्तियों पर भी घटित होता है। महावीर के अभय ने प्रकृति की रुद्रता से भयभीत यात्रियों में अभय का संचार कर दिया। वे उनकी अभयमुद्रा को देख शान्त हो गए। प्रकृति का आवेग भी शान्त हो गया। नौका ने यात्रियों को तट पर पहुंचा दिया। महावीर मृत्यु-भय की महानदी को पार कर अभय के तट पर पहुंच गए।
१. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ. २७७, २७९ । २. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २८०,२८१ ।
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