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वंदना / २७५
-जो बोलने के समय स्याद्वादी, श्रद्धाकाल में अनेकान्तदर्शी, आचरण की भूमिका में चरित्रनिष्ठ, प्रवृत्तिकाल में ज्ञानी, निवृत्तिकाल में ध्यानी, बाह्य के प्रति कर्मयोगी
और अन्तर् के प्रति तपस्वी है, वह नानारूपधर भगवान् वर्द्धमान मेरे लिए शरण
हो। ३६. अदृश्यो यदि दृश्यो न, भक्तेनापि मया प्रभो!
स्याद्वादस्ते कथं तर्हि, भावी में हृदयंगमः।' -प्रभो ! मैं तुम्हारा भक्त हूं। तुम अदृश्य हो। किन्तु मेरे लिए तुम यदि दृश्य नहीं
बनते हो तो तुम्हारा स्याद्वाद मेरे हृदयंगम कैसे होगा? ३७. त्वदास्यलासिनी नेत्रे त्वदुपास्तिकरौ करौ।
त्वद्गुणश्रोत्रिणी श्रोत्रे, भूयास्तां सर्वदा मम॥ -मेरे नेत्र तुम्हारे मुख को सदा निहारते रहें। मेरे हाथ तुम्हारी उपासना में संलग्न
और मेरे कान तुम्हारे गुणों को सुनने में सदा लीन रहे। ३८. कुण्ठापि यदि सोत्कण्ठा, त्वद्गुणग्रहणं प्रति।
ममैषा भारती तर्हि, स्वस्त्यै तस्यै किमन्यया॥ --मेरी वाणी कुंठित होने पर भी तुम्हारे गुणों को गाने के लिए उत्कंठित है तो
उसका कल्याण है। मुझे दूसरी नहीं चाहिए । ३९. तव प्रेष्योस्मि दासोस्मि, सेवकोस्म्यस्मि किंकरः।
ओमिति प्रतिपद्यस्व, नाथ! नातः परं बुवे॥ -मैं तुम्हारा प्रेष्य हूं, दास हूं, सेवक हूं, किंकर हूं। तुम इसे स्वीकार कर लो।
उससे आगे मेरी कोई मांग नहीं है। ४०. वाक्गुप्तेस्त्वत्स्तुतौ हानिः,मनोगुप्तेस्तव स्मृतौ।'
कायगुप्तेः प्रणामे ते, काममस्तु सदापि नः। -प्रभो! तुम्हारी स्तुति करने में वचनगुप्ति की हानि होती है। तुम्हारी स्मृति करने में मनोगुप्ति की हानि होती है। तुम्हें प्रणाम करने में कायगुप्ति की हानि होती है। प्रभो ! ये भले हो, मैं तुम्हारी स्तुति, स्मृति और वंदना सदा करूंगा।
१. वीतरामाष्टक : ४ । वंदनाकार-मुनि नथमल । २. वीतरागस्तव : २०१६ । ३. वीतरागस्तव : २०१७ । ४. वीतरागस्तव : २०।८ । ५. महापुराण ७६।२ । वंदनाकार--आचार्य जिनसेन ।
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