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________________ २७४ / श्रमण महावीर ३१. स्वत एव भवः प्रवर्तते,स्वत एव प्रविलीयते पि च। स्वत एव च मुच्यते भवात्, इति पश्यंस्त्वमिवाभवो भवेत्। -यह आत्मा स्वयं भव का प्रवर्तन करता है, स्वयं उसमें विलीन होता है और स्वयं ही उससे मुक्त होता है, यह देखते हुए तुम अभव हो गए। ३२. यत्र तत्र समये यथा तथा, योसि सोस्यभिधया यया तया। वीतदोषकलुषः स चेद् भवान्, एक एव भगवान्! नमोस्तु ते॥ -जिस किसी समय में, जिस किसी रूप में जो कोई जिस किसी नाम से प्रसिद्ध हो, यदि वह वीतराग है तो वह तुम एक ही हो । बाह्य के विभिन्न रूपों में अभिन्न मेरे भगवान् ! तुम्हें नमस्कार हो। ३३. न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो, न द्वेषमात्रदरुचिः परेषु। यथावदाप्तत्व परीक्षया तु, त्वामेव वीरप्रभुमाश्रिताः स्मः॥ - श्रद्धा के कारण तुम्हारे प्रति मेरा पक्षपात नहीं है। द्वेष के कारण दूसरों के प्रति अरुचि नहीं है। मैंने आप्तत्व की परीक्षा की है। उसी के आधार पर मेरे प्रभो महावीर! मैं तुम्हारी शरण में आया हूं। ३४. न विद्युद् यच्चिन्हं न च तत इतोऽभ्रे भ्रमति यो, न सौवं सौभाग्यं प्रकटयितुमुच्चैः स्वनति च। पराद्यांचावृत्या मलिनयति नाङ्गक्वचिदपि, सतां शान्तिं पुष्यात् सदपि जिनतत्वाम्बुदवरः॥ -जिसमें बिजली की चमक नहीं है, जो आकश में इधर-उधर नहीं घूमता, जो अपना सौभाग्य प्रकट करने के लिए जोर-जोर से गर्जारव नहीं करता, जो दूसरे के सामने याचना का हाथ फैलाकर अपने अंग को कभी भी मलिन नहीं करता, वह महावीर के तत्त्व का जलधर सत्यनिष्ठ लोगों की शान्ति को पुष्ट करे। ३५. यःस्याद्वादी वदनसमये योप्यनेकान्तद्रष्टिः, श्रद्धाकाले चरणविषये यश्च चारित्रनिष्ठः। ज्ञानी ध्यानी प्रवचनपटुः कर्मयोगी तपस्वी, नानारूपो भवतु शरणं वर्धमानो जिनेन्द्रः। - १. द्वात्रिंशिका : ४।२६ । २. अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका :२९ वंदनाकार-आचार्य हेमचन्द्र ३. अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका :३१ । ४. जैन सिद्धान्त दीपिका, प्रशस्ति शलोक २ । वंदनाकार-आचार्य तुलसी । ५. वीतरागाष्टक:४ । वंदनाकार-मनि नथमल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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