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२७० / श्रमण महावीर
११. जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ । जय गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥
- श्रुत के मूलस्रोत, चरम तीर्थंकर, लोकगुरु महात्मा महावीर की जय हो । १२. सो जयइ जस्स केवलणाणुज्जलदप्पणम्मि लोयालोयं ।
पुढ पदिबिंबं दीसइ, वियसियसयवत्तगब्भगउरो वीरो ॥
-जिसके केवलज्ञान रूपी उज्ज्वल दर्पण में लोक और अलोक प्रतिबिम्ब की भांति दीख रहे हैं, जो विकसित कमल-गर्भ के समान उज्ज्वल और तप्त स्वर्ण के समान पीत वर्ण है, उस भगवान् महावीर की जय हो । १३. तिस्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदयाः, पंचेर्यादिसमाश्रयाः समितयः पञ्च व्रतानीत्यपि । चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्वं न दृष्टं परैः, आचारं परमेष्ठिनो जिनपतेर्वीरान् नमामो वयम् ॥ - तीन गुप्तियां मन की गुप्ति, वचन की गुप्ति और काया की गुप्ति, पांच समितियां - गमन की समिति, भाषा की समिति, आहार की समिति, उपकरण की समिति और उत्सर्ग की समिति,
पांच महाव्रत - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इस तेरह प्रकार के चारित्र - धर्म का, जो पूर्ववर्ती तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित नहीं था, प्रतिपादन किया, उस महावीर को नमस्कार करते हैं । १४. देहज्योतिषि यस्य मज्जति जगद् दुग्धाम्बुराशाविव, ज्ञानज्योतिषि च स्फुटत्यतितरां अभूर्भुवः स्वस्त्रयी । शब्दज्योतिषि यस्य दर्पण इव स्वार्थाश्चकासत्यमी, स श्रीमानमरार्चितो जिनपतिर्ज्योतिस्त्रयायास्तु नः ।
- क्षीरसमुद्र में मज्जन की भांति जिसकी देहज्योति में जगत् मज्जन करता है, जिसकी ज्ञानज्योति में त्रिलोकी स्फूर्त होती है, दर्पण में प्रतिबिम्ब की भांति जिसकी शब्दज्योति में पदार्थ प्रतिभाषित होते हैं वह देवार्चित महावीर हमें तीनों ज्योतियों की उपलब्धि का मार्गदर्शन दे ।
२. नंदी, गाथा २ । वंदनाकार - देववाचक |
३. जयधवला, ३ । मंगलाचरण । वंदनाकार — आचार्य वीरसेन ।
४. चारित्रभक्ति, श्लोक ७ । वंदनाकार - आचार्य पूज्यपाद । ५. तत्त्वानुशासन प्रशस्ति श्लोक २५९ । वंदनाकार—आचार्य रामसेन
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