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२५८ / श्रमण महावीर
वर्ष की तथा सुधर्मा का निर्वाण १०० वर्ष की अवस्था में हुआ।
भगवान् महावीर तीर्थंकर थे। वे परम्परा के कारण हैं, पर परम्परा में नहीं हैं। तीर्थंकर की परम्परा नहीं होती। वह किसी का शिष्य नहीं होता और उसका शिष्य तीर्थंकर नहीं होता। इस दृष्टि से भगवान् महावीर के धर्म-शासन में प्रथम आचार्य सुधर्मा हुए। वे भगवान् के उत्तराधिकारी नहीं थे। भगवान् ने अपना उत्तराधिकार किसी को नहीं सौंपा । भगवान् के धर्म-संघ के अनुरोध पर सुधर्मा ने धर्म-शासन का सूत्र संभाला।
गौतम भगवान् के सबसे ज्येष्ठ शिष्य थे। उनकी श्रेष्ठता भी अद्वितीय थी। पर भगवान् के निर्वाण के तत्काल बाद वे केवली हो गये। इसलिये वे आचार्य नहीं बने। केवली किसी का अनुसरण नहीं करता। वह जनता को यह नहीं कहता है कि महावीर ने ऐसा कहा, इसलिए मैं यह कह रहा हूं। उसकी भाषा यह होती है कि मैं ऐसा देख रहा हूं, इसलिए यह कह रहा हूं। भगवान् महावीर का धर्म-शासन चलाना था। उनकी अनुभूत वाणी को फैलाने का गुरुतर दायित्व संभालने में सुधर्मा सक्षम थे। इसलिए धर्मसंघ ने उन्हें आचार्य पद पर स्थापित किया।
बौद्ध पिटकों में मिलता है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद उनके धर्म-संघ में फूट पड़ गई। मज्झिमनिकाय में लिखा है -
एक बार भगवान् शाक्य जनपद के सामगाम में विहार कर रहे थे। पावा में कुछ समय पूर्व ही निग्गंठ नातपुत्त की मृत्यु हुई थी। उनकी मृत्यु के अनन्तर ही निग्गंठों में दो पक्ष हो गए। लड़ाई, कलह और विवाद होने लगा। निग्गंठ एक दूसरे को वचन-वाणों से पीडित करते हुए कह रहे थे - तू इस धर्म-विनय को नहीं जानता, मैं इसको जानता हूं। तू इस धर्म-विनय को कैसे जान सकेगा? तू मिथ्या प्रतिपन्न है, मैं सम्यग-प्रतिपन्न हूं। मेरा कथन हितकारी है, तेरा कथन अहितकारी है। पूर्व कथनीय बात तूने पीछे कही और पश्चात् कथनीय बात पहले कही। तेरा वाद आरोपित है। तू वाद में पकड़ा जा चुका है। अब तू उससे छूटने का प्रयत्न कर । यदि तू समर्थ है तो इस वाद को समेट ले। उस समय नातपुत्तीय निग्गंठों में युद्ध-सा हो रहा था।
निग्गंठ नातपुत्त के श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य भी नातपुत्तीय निग्गंठों में वैसे ही विरक्तचित्त हैं, जैसे कि वे नातपुत्त के दुराख्यात, दुष्प्रवेदित, अनैर्यानिक, अनृ-उपशमसंवर्तनिक, अ-सम्यक्-संबुद्ध-प्रवेदित, प्रतिष्ठा-रहित, भिन्नस्तूप, आश्रय रहित धर्म विनय में थे।
चुन्द समणुद्देश पावा में वर्षावास समाप्त कर सामगाम में आयुष्मान् आनन्द के पास आए और उन्हें निग्गंठ नातपुत्त की मृत्यु तथा निग्गठों में हो रहे विग्रह की विस्तृत सूचना दी। आयुष्मान् आनन्द बोले - आवुस चुन्द! भगवान् के दर्शन के लिए यह कथा भेंट रूप
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