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सहयात्रा : सहयात्री / २३९
भुलाने का प्रयत्न करने लगा। जिसे भुलाने का प्रयत्न किया जाता है, उसकी धारणा अधिक पुष्ट हो जाती है। रोहिणेय प्रयत्न करने पर भी उस वाणी को भुला नहीं सका। वह उसकी धारणा में समा गई।
रोहिणेय का आतंक दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा था। नागरिक उत्पीड़ित हो रहे थे । एक दिन प्रमुख नागरिक एकत्र हो मगध नरेश श्रेणिक की राज्यसभा में पहुंचे। उनके चेहरों पर भय, विषाद और आक्रोश की त्रिवली खिंच रही थी। मगध सम्राट् ने उनका कुशल पूछा। वे बोले - 'आपकी छत्रछाया में सब कुशल था । पर रोहिणेय की काली छाया राजगृह के नागरिकों का कुशल लील गई।' सम्राट् का चेहरा तमतमा उठा। उसने उसी समय नगर के कोतवाल को बुलाया और कड़ी फटकार सुनाई। कोतवाल ने प्रकम्पित स्वर में कहा'महाराज ! दस्यु बड़ा दुर्दान्त है। मैंने उसे पकड़ने के बहुत प्रयत्न किए। मुझे कहते हुए संकोच हो रहा है कि मेरा एक भी प्रयत्न सफल नहीं हुआ। महामात्य अभयकुमार मेरा मार्ग-दर्शन करें, तभी उस चोर को पकड़ा जा सकता है।'
अभयकुमार ने इस कार्य को अपने हाथ में ले लिया। उसने एक गुप्त योजना बनाई। रात के समय नगर के चारों दरवाजों को खुला रखा। प्रहरी अट्टालकों में छिपे रहे । रात के दस-बारह बजे होंगे। रोहिणेय ने दक्षिणी द्वार में प्रवेश किया । अट्टालकों के पास पहुंचते ही प्रहरियों ने उसे पकड़ लिया। उसे भाग निकलने का या रूप बदलने का कोई अवसर नहीं मिला।
दूसरे दिन नगर - रक्षक ने चोर को सम्राट् के सामने प्रस्तुत किया। सम्राट् की भृकुटी तन गई। उसने क्रोधावेश में कहा - 'रोहिणेय ! तूने राजगृह को आतंकित कर रखा है। भद्र - पुरुषों के इस नगर में केवल तू ही अभद्र है। अब तू अपने पापों का फल भुगतने को तैयार हो जा। तुझे क्यों नहीं मृत्युदंड दिया जाए।
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बंदी बोला - 'सम्राट् जो कह रहे हैं, वह बहुत उचित है। जिस रोहिणेय ने राजगृह को उत्पीड़ित कर रखा है, उसे मृत्युदंड अवश्य मिलना चाहिए। पर प्रभो ! जो रोहिणेय नहीं है, क्या उसे भी मृत्युदंड मिलना चाहिए?'
बंदी का तर्क सुन सम्राट् और सभासद् एक क्षण मौन हो गए। सब ध्यानपूर्वक उसके चेहरे की ओर देखने लगे। वे एक-दूसरे से पूछने लगे' - 'क्या यह रोहिणेय नहीं है?' वातावरण में संदेह की तरंगे उठने लगीं। सम्राट् ने पूछा 'क्या तू रोहिणेय नहीं है ?'
'नहीं, बिलकुल नहीं।'
'तो फिर तू कौन है?'
'मैं शालग्राम का व्यापारी हूं।' 'तेरा नाम ?'
'दर्गचण्ड ?'
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