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मुक्त मानस : मुक्त द्वार / २०१
'इस लता पर लगे फूल को देख रहे हो?' 'भंते ! हां, इसका लाल रंग देख रहा हूं।' 'इसकी विशेषता क्या है?' 'भंते ! गंध।' यह मधुमक्खी क्यों भिनभिना रही है? 'भंते ! इसका रस लेने के लिए।' "इसका स्पर्श कैसा है?' 'भन्ते! बहुत कोमल।'
'कालोदायी!' जिस वस्तु में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं, उसे मैं पुद्गलास्तिकाय कहता हूं।'
'भंते ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय पर कोई जीव बैठ सकता है? खड़ा रह सकता है? लेट सकता है?'
'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। केवल पुद्गल पर ही कोई बैठ सकता है, खड़ा रह सकता है और लेट सकता है।'
भगवान् का उत्तर सुन कालोदायी का संदेह दूर हो गया। वह भगवान् के पास प्रव्रजित हो गया।
ये कुछ घटनाएं प्रस्तुत करती हैं मुक्त मानस और मुक्त द्वार के उन्मुक्त चित्र ।
१. भगवई, १८।१३४-१४२ २. भगवई,७।२२० : एत्थ णं से कालोदाई....पव्वइए ।
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