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मुक्त मानस : मुक्त द्वार / १९९ होकर वे मद्दुक के पास गए। उन्होंने कहा - 'मद्दुक ! तुम्हारे धर्माचार्य श्रमण महावीर पंचास्तिकाय का प्रतिपादन करते हैं । उनमें चार अजीव हैं और एक जीव । चार अमूर्त हैं और एक मूर्त! मद्दुक ! अस्तिकाय प्रत्यक्ष नहीं है, अत: उन्हें कैसे माना जा सकता है ? ' मदुक ने उन परिव्राजकों से कहा- 'जो क्रिया करता है, उसे हम जानते-देखते हैं और जो क्रिया नहीं करता, उसे हम नहीं जानते-देखते । '
सब परिव्राजक एक साथ बोल उठे - 'तुम कैसे श्रमणोपासक हो जो अस्तिकाय को नहीं जानते-देखते ?'
'आयुष्मन् ! हवा चल रही है, यह आप मानते हैं? '
'हां, मानते हैं । '
'आप हवा का रूप देख रहे हैं?"
'नहीं, ऐसा नहीं होता । '
'आयुष्मन् ! नाक में गंधयुक्त पुद्गल प्रविष्ट होते हैं ?'
'हां, होते हैं ।'
'आयुष्मन् ! आप नाक में प्रविष्ट गंधयुक्त पुद्गलों का रूप देखते हैं ? ' 'नहीं, ऐसा नहीं होता ।' 'आयुष्मन्! अरणि 'हां, होती है । '
'अग्नि होती है ? '
'आयुष्मन् आप अरणि में रही हुई अग्नि का रूप देखते हैं? '
'नहीं ऐसा नहीं होता । '
'आयुष्मन् ! आप देवलोक में विद्यमान रूपों को देखते हैं?'
'नहीं ऐसा नहीं होता । '
आयुष्मन् ! जैसे उक्त वस्तुओं के न दीखने पर उनके अस्तित्व को कोई आंच नहीं आती, वैसे ही मैं या आप न जाने देखे, उससे वस्तु का नास्तित्व प्रमाणित नहीं होता । यदि आप वस्तु के न दीखने पर उसका अस्तित्व स्वीकार नहीं करेंगे तो आपको जगत् के बहुत बड़े भाग के अस्तित्व को अस्वीकार करना होगा।'
मदुक के इस तर्क पर सब परिव्राजक मौन हो गए। जब वह वहां से चल भगवान् महावीर के पास पहुंचा। भगवान् ने उसे सम्बोधित कर कहा - 'मद्दुक ! तुमने कहा- जो क्रिया करता है, उसे हम जानते देखते हैं । और जो क्रिया नहीं करता, उसे हम नहीं जानते-देखते। यह बहुत सुन्दर कहा, यह बहुत उचित कहा। जो व्यक्ति अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, अमत और अविज्ञात अर्थ का जन-जन के बीच निरूपण करता है, वह सत्य की अवेहलना करता है । '
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