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मुक्त मानस : मुक्त द्वार / १९७
२. भगवान् पार्श्व का धर्म-तीर्थ भगवान् महावीर के धर्म-तीर्थ से भिन्न था। उनके श्रमण भगवान् महावीर के श्रमणों से मतभेद भी रखते थे। समय-समय पर वे महावीर के सिद्धान्तों की आलोचना भी करते थे। फिर भी भगवान् महावीर ने पार्श्व के श्रमणों के यथार्थ-बोध का मुक्तभाव से समर्थन किया।
। उस समय श्रमण-संघों का लोक-संग्रह की ओर झुकाव नगण्य था। उनकी सारी शक्ति आत्म-साधना तथा सत्य-शोध में लगती थी। इसीलिए उसमें साम्प्रदायिक आग्रह नहीं पनपा। जैन श्रमणों का लोक-संग्रह की ओर झुकाव बढ़ा तब एक नियम बना कि जैन श्रमण दूसरे श्रमणों या परिव्राजकों का सत्कार-सम्मान न करे। दूसरे का सत्कारसम्मान करने से जैन उपासकों में श्रद्धा की शिथिलता आती है। वे जैन श्रमणों की अपेक्षा उन्हें अधिक पूजनीय मानने लग जाते हैं । अतः उपासकों की श्रद्धा को सुदृढ़ बनाए रखने के लिए मुनि अन्यतीर्थिक साधुओं का सत्कार-सम्मान न करे।
भगवान् महावीर के समय में यह नियम नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय व्यवहार काफी मुक्त था। भगवान् ने गौतम से कहा - 'गौतम! आज तुम अपने पूर्वपरिचित मित्र से मिलोगे।'
'भन्ते! वह कौन है?' 'उसका नाम स्कंदक है।' 'भन्ते ! मैं उससे कब मिलूंगा?'
'वह अभी रास्ते में चल रहा है। बहुत दूर नहीं है। तुम अभी-अभी थोड़ी देर में उससे मिलोगे।'
'भन्ते! क्या मेरा मित्र आपका शिष्य बनेगा?' 'हां, बनेगा।'
भगवान् यह कह रहे थे, इतने में स्कंदक सामने आ गया। गौतम ने स्कंदक को निकट आते हुए देखा। वे तत्काल उठे और स्कंदक के सामने जाकर बोले - 'स्वागत है, स्कंदक! सुस्वागत है, स्कंदक! अन्वागत है, स्कंदक! स्वागत-अन्वागत है, स्कंदक!' गौतम के मुक्त व्यवहार ने स्कंदक को मैत्री-सूत्र में बांध लिया।
३. कृतंगला के पास श्रावस्ती नगरी थी। वहां परिव्राजकों का एक आवास था। उसका आचार्य था गर्दभाल। स्कंदक उनका शिष्य था। उस श्रावस्ती में पिंगल नाम का निर्ग्रन्थ रहता था। एक दिन वह परिव्राजक-आवास में चला गया। उसने स्कंदक से
पूछा
१. लोक सांत है या अनन्त? २. जीव सांत है या अनन्त?
३. मोक्ष सांत है या अनन्त? १. भगवई, २।२०-३६ । २. तीर्थंकर काल का ग्यारहवां वर्ष ।
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