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१५८ / श्रमण महावीर
चलाता था। पर वह समत्व का धनी था। परिग्रह के केन्द्रीकरण में उसका विश्वास नहीं था। वह भगवान् महावीर के अल्प-संग्रह के आंदोलन का प्रमुख अनुयायी था।
भगवान् महावीर का असंग्रह-आंदोलन उनके अहिंसा-आंदोलन का ही अंग था। उनका अनुभव था कि अहिंसा की प्रतिष्ठा हुए बिना असंग्रह की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। संग्रह में आसक्त मनुष्य वैर की अभिवृद्धि करता है। अहिंसा का स्वरूप अवैर है। वैर की वृद्धि करने वाला अहिंसा को विकसित नहीं कर सकता। जिसे मानवीय एकता की अनुभूति नहीं है, दूसरों के हितों के अपहरण में अपने हितों के अपहरण की अनुभूति नहीं है, वह असंग्रह का आचरण नहीं कर सकता । व्यवस्था की बाध्यता से व्यक्ति व्यक्तिगत स्वामित्व को छोड़ देता है। यह अद्भुत सामाजिक परिवर्तन विगत कुछ शताब्दियों में घटित हुआ सामाजिक परिवर्तन है। किन्तु सुदूर अतीत में व्यक्तिगत स्वामित्व के समीकरण की दिशा का उद्घाटन महावीर के असंग्रह आन्दोलन की महत्त्वपूर्ण घटना है।
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