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________________ २४ अतीत का सिंहावलोकन इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर के पास आए। वन्दना कर बोले-'भंते ! मैं भगवान् का वर्तमान देख रहा हूं। मेरा संकल्प है कि भविष्य में मैं भगवान् का वैसे ही अनुगमन करूंगा, जैसे छाया शरीर का अनुगमन करती है किन्तु भंते! अतीत मेरे हाथ से निकल चुका है। मैं साधनाकाल में भगवान् के साथ नहीं रह सका। भंते! मैं उसे जानना चाहता हूं। यदि भगवान् को कष्ट न हो तो भगवान् मुझे उस समय के कुछ प्रयोगात्मक अनुभव सुनाएं।' भगवान् ने स्वीकृति दी और वे कहने लगे – 'गौतम! इन दिनों क्षत्रियों और ब्राह्मणों में प्रतिद्वन्द्विता चल रही है। मैं इसे समाप्त करना चाहता हूं। मैंने दीक्षित होते ही इस दिशा में प्रयत्न शुरू कर दिए। मैंने पहला भोजन ब्राह्माण के घर किया। क्षत्रियों और ब्राह्मणों के समन्वय का मेरा यह पहला प्रयोग था।' __'गौतम! मेरे प्रयोग की चरम परिणति तुम्हें पाकर हुई है। मेरे आसपास तुम सब ब्राह्मण ही ब्राह्मण हो। प्रतीत होता है अब वह प्रतिद्वन्द्विता अन्तिम सांस ले रही है।' 'भंते ! जातीय-समन्वय की दिशा में भगवान् का चरण आगे बढ़ा, उसका लाभ हमें मिला। हम भगवान् की शरण में आ गए। भंते! मैं जानना चाहता हूं, भगवान् के प्रयोगों से और भी बहुत लोग लाभान्वित हुए होंगे?' ___ 'गौतम! मैंने समता धर्म (साम्ययोग) की साधना की है। मैं उसी का प्रतिपादन करूंगा। मैं नारी और पुरुष की आध्यात्मिक क्षमता को परिपूर्णतया तुल्य देखता हूं, हीन या अतिरिक्त नहीं देखता। मैंने १७५ दिन भोजन नहीं किया। फिर चन्दनबाला के हाथ से भिक्षा लेकर भोजन किया। यह कोई अकारण आग्रह नहीं था। यह मेरा प्रयोग था, नारीजाति के पुनरुत्थान की दिशा में।' 'भंते ! मैं अनुभव कर रहा हूं कि भगवान् का वह प्रयोग बहुत सफल रहा। चन्दनबाला को दीक्षित कर भगवान् ने नारी जाति के विकास का अवरुद्ध द्वार ही खोल दिया। भंते ! भगवान् ने एक जाति के उदय का प्रयत्न किया, क्या इससे दूसरी जाति का अनुदय नहीं होगा?' 'गौतम! समता धर्म का साधक सर्वोदय चाहता है। वह किसी एक के हितसाधन से दूसरे के हित को बाधित नहीं करता । जब मनुष्य विषमता का पथ चुनता है तभी हितों का संघर्ष खड़ा होता है। मैंने दासप्रथा का विरोध सर्वोदय की दृष्टि से किया। १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २७० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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