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________________ तीर्थ और तीर्थंकर / ९१ 'क्या बताएं, इतना प्रभावशाली व्यक्ति हमने कहीं नहीं देखा। उनके चेहरे पर तप का तेज दमक रहा है।' 'वहां कौन जा सकता है ? ' 'किसी के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं है । ' 'वहां काफी लोग होंगे ?' 'हजारों - हजारों की भीड़। पैर रखने को स्थान नहीं। फिर भी जो लोग जाते हैं वे निराश नहीं लौटते । ' इन्द्रभूति के पैर आगे बढ़ते-बढ़ते रुक गये। मन में सन्देह उत्पन्न हो गया । उन्होंने सोचा - महावीर कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। लोगों की बातों से लगता है कि उनके पास साधना का बल है, तपस्या का तेज है। क्या मैं जाऊं? मन ही मन यह प्रश्न उभरने लगा। इसका उत्तर उनका अहं दे रहा था। अपने पांडित्य पर उन्हें गर्व था। वे शास्त्र - चर्चा के मल्लयुद्ध में अनेक पंड़ितों को परास्त कर चुके थे। वे अपने को अजेय मान रहे थे। इस सारी परिस्थिति से उत्पन्न अहं ने उन्हें फिर महावीर के पास जाने को प्रेरित किया । उनके पैर आगे बढ़े। उनके पीछे हजारों पैर और उठ रहे थे । शिष्यों द्वारा उच्चारित विरुदावलियों से आकाश गूंज उठा। पावा के नागरिकों का ध्यान उनकी ओर केन्द्रित हो गया । राजपथ स्तब्ध हो गए । इन्द्रभूति महासेन वन के बाहरी कक्ष में पहुंचे। समवसरण को देखा। उनकी आंखों में अद्भुत रंग-रूप तैरने लगा। उनका मन अपनत्व की अनुभूति से उद्वेलित हो गया । उन्हें लगा जैसे उनका अहं विनम्रता की धारा में प्रवाहित हो रहा है। उनकी गति में कुछ शिथिलता आ गई । उत्साह कुछ मंद हो गया । पर परम्परा का मोह एक ही धक्के में कैसे टूट जाता? वे साहस बटोर महावीर के पास पहुंच गए। भगवान् ने इन्द्रभूति को देखा। अपनी आंखों में प्रवहमान मैत्री की सुधा को उनकी आंखों में उंड़ेलते हुए बोले, 'गौतम इन्द्रभूति ! तुम आ गए?' इन्द्रभूति का अहं चोट खाए सांप की भांति रह-रहकर फुफकार उठता था । वह एक बार फिर बोल उठा, 'मुझे कौन नहीं जानता? मेरे नाम से मालव तक के लोग कांपते हैं। सौराष्ट्र में मेरी धाक है। काशी- कौशल के पंड़ितों का मैंने मान-मर्दन किया है। क्या सूर्य किसी से छिपा है ? महावीर बड़े चतुर हैं। वे मेरा नाम - गोत्र और परिचय बताकर मुझे अपनी सर्वज्ञता के जाल में फंसाना चाहते हैं, पर मैं क्या भोली-भाली मछली हूं जो इनके जाल में फंस जाऊं? मैं इनके मायाजाल में कभी नहीं फंसूगा ।' इन्द्रभूति अपने ही द्वारा गूंथे हुए विकल्प के जाल में उलझ रहे थे । भगवान् महावीर ने सुलझाव की भाषा में कहा, 'इन्द्रभूति ! तुम्हें जीव के अस्तित्व के बारे में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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