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प्रवचनरसना रसिक, श्रद्धासंपन्न भव्य आत्माओने सारु आ काव्यग्रन्थनुं महत्त्व खूब वधे छे. ग्रन्थरचयिता महापुरुषे काव्यमय शैलीथी पद्धतिपूर्वक बन्ने अनुयोगोना विषयोनुं प्रतिपादन आ ग्रन्थमां कर्युं छे. आथी काव्य के महाकाव्य तरिके प्रस्तुत गौतमीयकाव्य अनेरी भात पाडे छे.
काव्य के महाकाव्यना सामान्य अभ्यासी या तेमां रस लेनार सौ कोई सहृदयजनने आ ग्रन्थ सुंदरमां सुंदर आलंबनरूप बने तेवो छे.
आटली वात स्पष्ट छे: काव्य ए शब्दशास्त्रनी व्युत्पत्तिनुं साधनभूत अंग छे. व्याकरण, कोश, लिंगानुशासननी जेम काव्य पण शब्दशास्त्ररूप गंभीरसागरने पार पामवा माटेनुं सहकारी आलंबन छे. साहित्यनी साथै पण काव्यने गाढ संबन्ध होवो आवश्यक छे. आ आवश्यकतानी दृष्टिये, प्रस्तुत काव्यग्रन्थ साहित्यना अलंकार, रस, गुण वगेरे अंग-प्रत्यंगोनी साथै सविशेष विकासने पामी शक्यो छे, एम कहेवुं ए यथार्थ छे. माटे ज श्रीगौतमीयकाव्य, काव्यग्रन्थोमां पोतानुं विशिष्ट स्थान मेळवी शके तेम छे.
भागीरथीना स्वच्छ जळप्रवाहनी जेम वहेतो प्रतिभाप्रकर्ष; नैसर्गिक कवित्वशक्ति; अने मनोहर विषयप्रतिपादनशैली ; — ग्रन्थकारना आ त्रणे य विशिष्टगुणोना संगमरूप प्रस्तुत गौतमीयकाव्य साचे ज साहित्य के काव्यरसना पिपासु वर्गने तोष आपी शकवाने समर्थ छे. विविध छन्दो, अलंकारप्रौढ भाषा, अर्थगंभीर शब्दो - काव्य के साहित्यना ग्रन्थोनी साथै सहज संकळायेली आ वस्तुओ प्रस्तुत काव्यग्रन्थमांथी आपणने मळी रहे छे.
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