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४०] प्रबन्धचिन्तामणि
[ द्वितीय प्रकाश राज्यों में भेजे जाते हैं।' इस प्रकार भीतर ही भीतर हँसते हुए उत्तर देकर उसने धारा के
स्वामी ( भोज ) को प्रसन्न किया । इस प्रकार उसकी वचन-चातुरीसे राजा चमत्कृत हुआ । गूर्जर देश के प्रति प्रयाण करनेका राजाने नगाड़ा बजवाया । प्रयाणके समय बंदीने यह स्तुतिपाठ किया
७२. चौड़ [ का राजा ] समुद्रकी गोदमें प्रवेश कर रहा है और आन्ध्र [ पति ] पर्वतकी खोहमें निवास कर रहा है, कर्णाट का राजा पट्ट बंध ( पगड़ी बाँधना ) नहीं करता है, गूर्जर [ का राजा. ] निर्झरका आश्रय लेता है, चे दि [ नरेश ] अस्त्रोंसे म्लान होगया है और राजाओंमें सुभट समान कान्यकुब्ज कूबड़ा होगया है-हे भो ज! तुम्हारे मात्र सेनातंत्रके प्रसारके भयसे ही
सभी राजा लोक व्याकुल हो रहे हैं। ७३. कौं क ण [ का राजा ] कोनेमें, लाट ( नरेश ) दरवाजेके पास, कलिङ्ग [ पति ] आँगनमें
सोया करते हैं । अरे को श ल [ नरेश ], तूं अभी नया है, मेरे पिता भी इस आसनपर सोया करते थे । इस प्रकार जिस ( भोज ) के कारागृहमें रातमें प्रत्यर्थियोंमें स्थानप्राप्तिके लिये उठा
हुआ पारस्परिक विरोध निरंतर बढ़ाता रहता है।
प्रयाणके लिये नगाड़े बजवाये जानेके बाद, रातको समस्त राजाओंकी दुर्दशाका दृश्य दिखलानेवाला नाटक अभिनीत होने लगा । उसमें कोई क्रुद्ध राजा, कारागारके भीतर सामनेकी ज़मीनपर सुस्थ भावसे सोये हुए तै लिप राजाको उठाने लगा । तै लिप ने उससे कहा- मैं तो यहाँ पुश्त-दर-पुश्तसे वास कर रहा हूँ, आप जैसे नये आये हुए राजाकी बातसे अपना पद कैसे छोड़ दूँ ?' राजा भोज ने हँसकर दा म र से नाटकके रसावतारकी प्रशंसा की । इसपर वह बोला-' महाराज ! यद्यपि नाटकमें रसकी जमावट बहुत उत्तम है तथापि इस नटकी, कथानायकके वृत्तान्तसे जो नितान्त अनभिज्ञता है वह धिक् है । क्यों कि राजा तै लिप दे व सूलीपर चढ़ाये हुए मुञ्ज के सिरसे पहचाना जाता है । सभाके सामने जब उसने इस प्रकार कहा तो राजाको उसकी निर्भर्त्सनापर क्रोध हो आया और उसी समय उस सामग्रीके साथ, जो दूसरोंके जुटाये न जुट सकती थी, तिल ङ्ग देशके प्रति प्रयाण किया।
४९) बादमें तैलि पदे व को बड़ी भारी सेनाके साथ आता हुआ सुनकर भोज व्याकुल हुआ। उतनेमें उसे दामर ने [ अपने ] राजाके यहाँसे आये हुए एक कल्पित ( जाली ) आदेशको दिखाकर कहा कि भी म भी चढकर भोगपुर तक आगया है। जलेपर नामक छिड़कनेके समान उसकी उस बातसे राजा भोज खूब सचिंत हो गया। उसने दाम र से कहा-इस वर्ष किसी तरह तुम अपने स्वामीको यहाँ आनेसे रोको । उसने बार बार इस प्रकार दीनताके साथ कहा और उस अवसरके जाननेवाले [ दाम र ] को हाथीके साथ हथिनी भेंट दी । उनको लेकर वह प त न में आया और भी म को परितुष्ट किया।
__५०) एक बार, जब वह धर्मशास्त्र सुन रहा था, उस समय अर्जुनका राधा-वेध (मत्स्य-वेध ) सुनकर सोचा कि ' अभ्यास करनेपर क्या कठिन है।' फिर बराबर अभ्यास करके उस विश्वविदित राधावेधको उसने सिद्ध किया और उसकी सारे नगरवासियोंको जान हो इसलिये नगरमें खूब सजावट कराई । किन्तु एक तैली और एक दर्जीके, अवज्ञासे उत्सवमें कोई भाग न लेने पर, रजाको उसकी खबर की गई। तैलीने चंद्रशाला (ऊपरी छत ) पर खड़े होकर, पृथ्वीपर रखे हुए संकडे मुँहके पात्रमें तेल ढालकर; और दर्जाने पृथ्वीपर खड़े होकर ऊपरकी ओर उठाये सूतके दोरेके अग्रभागको आकाशसे पड़ती हुई सुईके छेदमें Jain Education International
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