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२२] प्रबन्धचिन्तामणि
[प्रथम प्रकाश उपस्थित हुए हैं। किन्तु भोजनके समय मक्खी पड़ जानेके समान, इस ति लङ्ग देश के तै लिप नामक राजाके सेनापतिको, जो मुझे जीतनेके लिये आया है, जब तक शिक्षा न दे लूं तब तक आप पीछेसे हमला इत्यादि न करके रुक जाइये, यही अनुरोध करने में आपके पास आया हूं। मूल राज ने जब ऐसा कहा तो उस राजाने इस प्रकार कहा-राजा होकर भी अपने प्राणोंकी परवा न करके, सामान्य सैनिककी भाँति अकेले ही इस प्रकार शत्रुगृहमें प्रवेश करके चले आये इसलिये [ मैं तुम्हारे साहससे मुग्ध हूँ और ] जब तक जीऊंगा तब तक तुम्हारे साथ हमारी सन्धि बनी रहेगी । उस राजाके ऐसा कहने पर 'ऐसा मत कहो, ऐसा मत कहो' इस प्रकार निवारण करता हुआ, उसके द्वारा भोजनार्थ निमंत्रित होनेपर, अवज्ञापूर्वक अस्वीकार करके, वह हाथमें तलवार लेकर उठ चला और उसी सांढनीपर सवार होकर, अपनी उस सेनासे परिवृत होकर उस वारप सेनापतिकी सेनापर टूट पड़ा । उसे मारकर उसके दस हज़ार घोड़े और १८ सौ हाथी छीन कर, जितनेमें पड़ाव डालनेकी तैयारी कर रहा था, उतनेमें तो अपने गुप्तचरोंसे यह सब हाल सुनकर वह सपा द ल क्ष का राजा वहाँसे भाग निकला।
२६) उस राजाने पत्त न में श्री मूल राज वस हि का [ नामक जैन मन्दिर ] और श्री मुजा ल दे व स्वामी ( शिव ) का प्रासाद बनवाया । वह प्रति सोमवारको शिवकी भक्ति करनेके निमित्त सो मेश्वर पत्तन ( सोमनाथ पाटन ) की यात्राको जाता था। उसकी इस प्रकारकी भक्तिसे सन्तुष्ट होकर सो म नाथ उपदेश देकर म ण्ड ली न गरी में आये । उस राजाने वहाँ · मूलेश्वर' नामका मन्दिर बनवाया । नमस्कार करनेकी इच्छासे हर्षित होकर वहाँपर नित्य आनेवाले उस राजाकी, उस प्रकारकी भक्तिसे सन्तुष्ट होकर, सोम नाथ ने यह कहा कि मैं समुद्र के साथ तुम्हारे नगरमें अवतीर्ण हूँगा। यह कहकर सोमेश्वर अण हिल्लपुर में अवतीर्ण हुए। आये हुए समुद्रकी सूचना मिले इसलिये नगरके सभी जलाशयोंका पानी खारा होगया। उस राजाने वहाँपर त्रिपुरुष प्रा सा द नामक शिवका मन्दिर बनवाया।
२७ ) इसके बाद, वह उस प्रासादके प्रबंधक होने योग्य किसी उचित तपस्वीकी खोज करते हुए उसने एक कान्य डी नामक तपस्वीका नाम सुना, जो सरस्वती नदीके किनारे, एकान्तर दिनको उपवास किया करता था और पारणाके दिन अनिर्दिष्ट भिक्षाके पाँच ग्रासका आहार किया करता था। जब राजा उसकी वन्दना करने गया, तो उस समय उसे तीन दिनका ज्वर था । उसने अपने ज्वरको कंथामें संक्रा मित कर दिया । राजाने उसे देखकर पूछा कि-यह कन्था ( गुदड़ी ) कॉप क्यों रही है । राजाके साथ बात करनेमें असमर्थ होनेके कारण मैंने ज्वरको उसमें संक्रामित किया है-ऐसा कहनेपर, राजा बोला-यदि इतनी शक्ति है तो फिर ज्वरको सर्वथा दूर क्यों नहीं कर देते ? । राजाके यों कहनेपर उसने
२६. पूर्वजन्मके सञ्चित हमारे जो कोई भी रोग हों वे अब उपस्थित हों । मैं उनसे अनृण होकर ___ शिवके उस परम पदको प्राप्त होना चाहता हूँ।
शिव पुराण के इस बचनको कह कर बताया कि-'कर्म भोगे विना क्षय नहीं होते' यह जानते हुए मैं इसे कैसे दूर कर सकूँ । राजाने फिर त्रिपुरुष धर्म स्था न क के प्रबंधक होनेके लिये उससे प्रार्थना की। २७. अधिकार मिलनेसे तीन महीनोंमें, और मठका महन्त बननेसे तीन दिनोंमें [ नरक प्राप्त होता
है ]; और अगर शीघ्र ही नरकप्राप्तिकी इच्छा हो तो एक दिन पुरोहित बन जाओ। इस स्मृति-वाक्यके तत्त्वको जानते हुए, तपरूपी नौकासे संसार सागरको पार करके मैं फिर इस गोष्पदमें कैसे डूबना चाहूं। इस वाक्यसे निषिद्ध होकर राजाने [और कोई उपाय न सोच कर ] ताम्र-शासनको For Private & Personal Use Only
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