SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरण २१-२३] वनराज-आदिका प्रबन्ध [१७ उनके प्रत्युपकारकी बुद्धिसे उन्हींकी आज्ञासे श्री पार्श्वनाथकी प्रतिमासे अलंकृत पश्चासर नामक चैत्य बनवाया और उसमें देवकी आराधना करती हुई अपनी निजकी मूर्ति भी स्थापित की । धवल गृहमें कण्टेश्वरी देवीका भी मन्दिर बनवाया। २१. व न राज के समयसे ही गूर्जरोंका यह राज्य जैन मंत्रों द्वारा स्थापित हुआ है इसलिये इसका द्वेषी कभी भी आनंद प्राप्त नहीं कर सकता । २१) संवत् ८०२ से लेकर ५९ वर्ष २ मास २१ दिन तक श्री वन राज ने राज्य किया। श्री व न राज की पूरी आयु १०९ वर्ष २ मास २१ दिन की थी। संवत् ८६२ की आषाढ़ सुदी तृतीयाको अश्विनी नक्षत्र और सिंह लग्नके बीतते समय श्री वन राज के पुत्र श्री योगराज का राज्याभिषेक हुआ। [B. P. प्रतिमें "संवत् ८०२ से लेकर ६० वर्ष तक श्री वनराजने राज्य किया। संवत् ८६२ वर्षमें श्री योगराजका राज्यभिषेक हुआ ( P. प्रतिमें श्री योगराजने राज्य अलंकृत किया )," इतना ही पाठ है।] २२) उस राजा ( योगराज ) के तीन लड़के हुए। किसी समय क्षे म रा ज नामक कुमारने राजाको इस प्रकार सूचित किया कि एक अन्य देशीय राजाके प्रवहण ( जहाज ) ववंडरमें पड़कर तितर बितर हो गये हैं। वे अन्यान्य बंदरगाहोंसे हटकर श्री सो मे श्वर पत्त न में आ लगे हैं। उनमें १० हजार तेजस्वी घोड़े और १८ सौ (?) हाथी, तथा एक करोड किंमतवाली और और चीजे हैं। यह सब संपत्ति हमारे देशसे होकर अपने देशको जायगी। यदि महाराजकी आज्ञा हो तो उसे ले आया जाय । उसके ऐसी विज्ञप्ती करने पर राजाने वैसा करनेका निषेध किया । __उसके बाद जब वह सब स्वदेशकी अन्तिम सीमाके प्रान्तमें पहुंचा, तो वृद्धावस्थाके कारण राजाकी विकलताका विचार कर, तीनों कुमार अपनी सेना सजाकर उसपर टूट पडे, और अज्ञात चौर वृत्तिसे, उसके पाससे सब कुछ छीनकर अपने पिताके पास ले आये। भीतर-ही-भीतर कुपित किन्तु ऊपरसे मौन धारण किये हुए राजाने उनसे कुछ नहीं कहा । वह सब कुछ राजाको भेंटकर जब पूछा गया कि-क्षेम राज कुमारने यह अच्छा किया या बुरा ? तो राजा बोला-यदि कहूं कि अच्छा किया तो दूसरेके धन लूटनेका पाप लगता है और यदि कहूं कि अच्छा नहीं किया तो तुम लोगोंके मनमें बुरा लगता है। इससे यही सिद्ध होता है कि मौन ही रहना अच्छा है । फिर और भी सुनो! तुमारे प्रथम प्रश्नके उत्तरमें, दूसरेके धनके हरण करनेका जो मैंने निषेध किया था उसका कारण यह है कि-और और देशोंमें राजगण, अन्यान्य राजाओंकी जब प्रशंसा करते हैं, तब गूर्जर देश में चोरोंका राज्य है ऐसा कहकर वे नित्य उपहास किया करते हैं। जब हमारे स्थान पुरुष (प्रतिनिधि) इन बातोंके समाचार हमें देते हैं तो हमें सुनकर दुःख होता है और हमारे पूर्वजोंने कुछ इस तरहकी बातें की थीं, इसकी हमें ग्लानि होती है। पूर्वजोंका यह कलङ्क यदि लोगोंके हृदयसे भूल जाय तो, अन्य सब राजाओंकी पंक्तिमें हम भी राज शब्दका सम्मान पावें । किंचित् धन लोभसे लुब्ध होकर तुम लोगोंने पूर्वजोंके इस कलंकको मांज-मूंजकर फिरसे ताजा बना दिया। इसके बाद राजाने शस्त्रागारसे अपना धनुष्य मँगाकर यह आज्ञा दी कि तुम लोगोंमेंसे जो बलवान् हों वह इस धनुष्यको चढ़ावे । यथाक्रम सभी ऊठे पर जब कोई न चढ़ा सका तो राजाने खेलकी भांति उसे चढा दिया; और कहा२२. राजाकी आज्ञाका भंग करना, नौकरोंका वेतन काट लेना और स्त्रियोंको अलग शय्या देना विना शस्त्र ही से हत्या करना कहलाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy