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________________ प्रबन्धचिन्तामणि [ प्रथम प्रकाश [२] राज्य भी जाय, स्त्रियां भी जाय और इस लोकसे यश भी चला जाय; किन्तु हे सत्त्व! हम तुम्हारे जानेकी अनुमति आजीवन नहीं दे सकते । -इस प्रकार यह विक्रमादित्यके सत्त्वका प्रबंध है ॥३॥ ५) एक दूसरे अवसरपर, कोई विदेशी सामुद्रिक-शास्त्रज्ञ द्वारपालके द्वारा सभामें बैठे हुए विक्रमादित्य के पास ले जाया गया । प्रवेश करते ही राजाके लक्षणोंको देखकर वह सिर पीटने लगा । राजाने विषादका कारण पूछा, तो बोला-' महाराज, सभी अपलक्षणोंके निधान होनेपर भी तुम्हें छानवे देशोंकी साम्राज्य लक्ष्मीको भोगते हुए देखकर, सामुद्रिक शास्त्रके ऊपर मेरा विराग हो गया है । मैं तुम्हारे अन्दर ऐसी कोई काबरी (चितकबरी) आंत नहीं देख रहा हूं जिसके प्रभावसे तुम भी कोई राज्यकर्ता बनो । उसके इस वाक्यके सुनते ही विक्रमादित्य तलवार खींचकर जब अपने पेटमें मारने लगा तो उस ( सामुद्रिकज्ञ ) ने पूछा कि ' यह क्या ? ' इस पर विक्रम ने कहा-'पेट फाड़कर तुम्हें उसी प्रकारकी ( काबरी ) आंत दिखाता हूं। तब उसने कहा कि-' मैंने पहले नहीं समझा था कि, तुम्हारा यह सत्त्वरूपी महालक्षण बत्तीस लक्षणोंसे भी बढ़कर है । इसपर राजाने उसे पारितााषर्क देकर विदा किया । -इस प्रकार यह सत्त्वपरीक्षाका प्रबंध है ॥४॥ ६) इसके बाद एक अवसरपर, विक्रम ने सुना कि दूसरेके शरीरमें प्रवेश करनेवाली विद्यासे तिरस्कृत होकर अन्य सारी कलायें निष्फल-सी हैं । यह सुनकर उस विद्याकी प्राप्तिके लिये श्री पर्वत पर भै र वानन्द योगीके पास जाकर उसने चिरकाल तक उस ( योगी ) की सेवा करनी शुरू की । योगीके पूर्वसेवक किसी ब्राह्मणने [ राजासे यह कहा कि-तुम ] मुझे छोड़कर ( अकेले ) गुरुसे पर-काय-प्रवेश विद्या न लेना। राजाने उसका अनुरोध मान लिया । जब गुरु विद्या देनेको उद्यत हुए तो उनसे कहा कि-'पहले इस ब्राह्मणको विद्या दीजिये, बादको मुझे' । 'राजन् ! यह ( ब्राह्मण ) विद्याके सर्वथा अयोग्य है ' ऐसा गुरुके कहनेपर भी बार बार विक्रम अनुरोध करता रहा । तब गुरुने यह उपदेश देकर कि-'पीछे तुम पछताओगे' उस ब्राह्मणको भी विद्या दी। बादमें लौटकर दोनों उज्जयि नी पहुंचे । वहां पट्टस्ताके मर जानेसे राजपुरुषोंको उदास देखकर और स्वयं परकाय-प्रवेश विद्याका अनुभव करनेके निमित्त, राजाने उस हार्थाके शरीरमें अपनी आत्माका प्रवेश कराया। [ इस प्रसंगका वर्णन करनेवाला यह एक पद्य है-1 ५. ब्राह्मणको अंगरक्षक बनाकर राजा ( परकाय-प्रवेश ) विद्याके द्वारा अपने हाथीके शरीरमें प्रविष्ट हुआ । [ बादमें ] ब्राह्मण राजाके शरीर में पैठ गया । तब राजा क्रीडा-शुक ( महलके पीजरेमेंका तोता ) हुआ । बादमें (शुकरूपी) राजाने छिपकली के शरीरमें प्रवेश किया तो रानीने उसकी मृत्यु समझी । ( इस पर ) ब्राह्मणने ( जो राजाके शरीरमें प्रविष्ट हुआ बैठा था ) शुकको जिलाया और विक्रम ने फिर अपना शरीर पाया ॥ ५॥ इस तरह विक्रम को परकाय प्रवेश विद्या सिद्ध हुई । -इस प्रकार यह विद्यासिद्धिका प्रबंध है ॥५॥ ७) फिर एक दूसरे अवसरपर, विक्रमादित्य राजपाटिका' (बहिमण) में जा रहा था तब मार्गमें सिद्धसेन सूरिको आते देखा । उस नगरका ( जैन ) संघ उनके पीछे पीछे आरहा था और बन्दी जन ९'राजपाटिका' यह प्राकृत 'रायवाडिया' और देश्य 'रइवाडी' शब्दका संस्कृत भाषांतर है। पुराने समयमें राजा आदि राज्यनायक पुरुष प्रायः मध्यान्होत्तर तीसरे प्रहरके अंतमें या चतुर्थ प्रहरमें, राजमहलसे अनुचर आदिके खास परिवारके साथ निकल कर, प्रधान राजमार्गसे होते हुए नगर या गांवके बाहर जो राजकीय उद्यानादि स्थान होते थे उनमें जाते थे और वहांपर घंटे-दो घंटे ठहर कर, संध्याकाल होते समय वापस निवासस्थान पर आते थे । राजाओंका यह इस प्रकार टहलने या हवाखानेके लिये जो महल बाहर जाना होता था उसको राजपा टि का कहते थे। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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